कविताक अनुवादक समस्या
एक भाषाक कविताक दोसर भाषामें अनुवाद कोना
करी जाहिसँ कविताक भाव आ भाषा, दुनूक सुन्दरता यथावत् प्रतीत
हो; ई एकटा विकट समस्या थिक. सरल शब्दक
अनुवाद संभव छैक. किन्तु, कठिन भावक अनुवाद
कोना करी. एकटा उदहारण आचार्य जयशंकर प्रसादक कवितासँ देखी:
हिमाद्रि तुंग
श्रृंगसे प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयंप्रभा समुज्ज्वला
स्वतंत्रता पुकारती
दोसर उदाहरण कवि
नागार्जुनक कवितासँ अछि:
बाँसक ओधि उखाड़ि
करै छी जारनि
हम्मर दिन घूरत
कि हे जगतारनि !
उपरोक्त दुनू
पद केर अर्थ आ भाव अपन-अपन भाषामें स्पष्ट अछि.
किन्तु, एकरे दुनूकें जँ अंग्रेजीमें अनुवाद करबाक
हो कविताक लालित्य आ भाषा तँ दूर, पाठककें एकर भावो बुझायब कतेक
कठिन हेतैक से बूझब कठिन नहिं, जेना, 'गोदान'
शब्द भारतमें सार्थक तँ अछिए, तेँ,गोदान कहितहिं एकटा सामाजिक प्रथाक बोध भ' जाइछ,
जकर बोध Gift of cow
सँ एशियाई सँ इतर
पाठककें नहिं हेतनि. तखन प्रश्न उठैछ, एक
भाषाक कविताक अनुवाद दोसर भाषा, आ दोसर संस्कृतिक भाषामें,
कोना हो. एहि विषयमें ई विमर्श किछु अनुवादक लोकनिक
विचारसँ आरम्भ करैत छी. पछाति हम अपनो विचार देब.
सर्वविदित अछि,
नव देशमें पयर जमयबाक हेतु स्थानीय भाषाकें बुझबाक अनिवार्यताकें उपनिवेशवादी
लोकनि सबसँ पहिने अनुभव केलनि. फलतः, ओ
लोकनि विश्वकेर अनेक भागमें, जतय कतहु गेलाह, ओतुका भाषाकें बूझि, ओहि भाषा सबहक शब्द-कोष बनओलनि, ओकर व्याकरणक रचना केलनि, आ पछाति ओतुका साहित्यक अनुवाद सेहो केलनि. वीर महामुनिवरक
नामसँ दक्षिण भारतमें
प्रसिद्ध इतालवी पादरी बेस्की तमिल भाषाक आरंभिक विदेशी अध्येता, एकर एक प्रसिद्ध उदाहरण रहथि. अनुवाद केर विषय में बेस्की
( 1680-1747) कहैत छथि:
‘हमरा
लोकनि अधिक काल लैटिनक लोकोक्तिक शैलीक बिना लैटिन लिखैत छी, आ ताहूसँ बेसी तमिल शब्दकें यूरोपीय शैलीमें व्यक्त करैत छी.’[1]
एकरहिं स्पष्ट
करैत,
अंग्रेजी आ तमिल साहित्यक
दोसर सुप्रसिद्ध विद्वान, जी यू पोप
(1820- 1908) तमिल भाषामें दक्षताक संदर्भमें सँ लिखैत छथि,
‘ एहिसँ पहिने कि केओ ‘तमिल’ शैलीमें तमिल बजबाक प्रयास करथि, ई आवश्यक थिक जे,
ओ लोकनि पहिने तमिल लोकनिक सोचबाक पद्धतिसँ परिचित भ’ जाथि.
जखन वक्ता कठिन आ निरंतर श्रमसँ तमिल लोकनि-जकाँ सोचब सीखि लेथि, तखने ओ नीक-जकाँ तमिल-भाषा बाजबाक आशा राखथु, ओहिसँ पहिने
नहिं. एकर अतिरिक्त, भाषामें दक्षताक हेतु
विस्तृत अध्ययन आ स्थानीय नागरिकसँ
निरंतर सम्पर्क अनिवार्य थिक.’ [2]
हमरा जनैत,
ई नियम ओहि सब व्यक्ति/अध्येताक हेतु लागू होइछ
जे केओ एहन विदेशी भाषाक अनुवाद करैत छथि जतुका सामाजिक रीति-रिवाजसँ ओ अपरिचित
छथि. तें, नागार्जुनक मैथिली कविताक उपरोक्त
अंशक भारतीय भाषामें, बुझबा योग्य, अनुवाद
संभव अछि. किन्तु,
योरोपीय भाषाक पाठककें, बाँसक ओधि उखाड़बाक
कठिन परिश्रम आ ओधिक जारनि जरयबा-सन दरिद्रताक दंश आ पीड़ाक अनुभव करायब
कठिन छैक, जकर अनुभव
बाँसक ओधि उखाड़िनिहार करैत अछि ! अस्तु, एही कविताक भारतीय भाषाक अनुवाद आ अंग्रेजीक अनुवाद भिन्न हेतैक. ओकर विपरीत एक भारतीय भाषासँ दोसर भारतीय भाषा में अनुवादक एकटा उदहारण देखू. करजनीक दानाक लाल रंग आ ओकर ऊपरक
भागक कारी टुरनीसँ हमरा
लोकनि परिचित छी. ‘तिरुक्कुरल’में ढोंगी
साधुक गेरुआ वस्त्र आ कारी चरित्रक हेतु तिरुवल्लुवर सेहो करजनीक दानाक उपमाक देने
छथि. तें, मैथिलीमें एहि कुरल केर सहज अनुवाद
हमरा सुलभ प्रतीत भेल. किन्तु, ओही कुरल
केर अंग्रेजी अनुवादकें ओहने धरगर बनायब कठिन अछि !
आब एकटा दोसर
विन्दु पर विचार करी: कविताक अनुवाद केहन हयबाक
चाही ? भवभूतिक नाटक 'उत्तर रामचरित'क अंग्रेजीमें अनुवाद करैत, बेलवालकर नामक विद्वान, अनुवादक
आदर्श, आ अनुवाद-कार्यक कठिनताके निम्नवत
प्रस्तुत करैत छथि:
‘.. in translating poetry we are called upon not only to
give the meaning correctly, but also to reproduce the subtle literary qualities
of the original. Rhythm, word-order, figures of speech, compactness or
diffuseness of expression—in short, almost every literary device of the
original ought, in theory, to reappear in the translation. But since the genius
of one language differs radically from that of another, an ideal translation
is, as von Wilamowitz- Moellendorff observes, a travesty or perhaps metempsychosis†:
in other words, a wellnigh impossible task. (Therefore)Some things must be
sacrificed. But it is far better, wherever possible, to keep close to the
original and show the author in his true native colours, rather than, under the
pretext of giving a literary finish to the translation, to make him say things
which he did not say and would never dream of saying.[3]
हमरा जनैत उपरोक्त
उद्धरण अनुवादक एहन आदर्श थिक जकर निर्बाह असम्भव तँ अछिए, जँ एकर निर्बाह कयल जाय तँ संभव ‘सूर्यक टीका भानु’ ने चरितार्थ
भ’ जाय. प्रायः इएह कारण थिक जे
रबीन्द्रनाथ ठाकुर-सन सिद्धहस्त कविओ जखन अपने (बांग्ला) गीतांजलिक अंग्रेजी अनुवाद
करय बैसलाह तं ओ गीतांजलिक अनुवाद गद्यमें केलनि ! [4]
प्रायः, एहन उदाहरण विरले भेटत. मुदा, ई उदाहरण कविताक अनुवादक समस्याक एकटा एहन उदहारण
थिक जकर व्याख्या आवश्यक नहिं.
तथापि, जँ अनुवाद
काव्यहि में हो, आ
अनुवाद, मूल काव्यक
छाया प्रति नहिओ हो, तैओ जँ अनुवाद मूल केर प्रतिबिम्ब बनि सकय (भले बाम-दहिन जकां बूझि पड़ैक-
जेना अएना दहिनकें बाम कए दैछ), तँ,
अनुवादकें पढ़लासँ पाठककें मूल ग्रंथक स्वादक अनुभव अवश्य हेतनि. मुदा,
एकर हेतु ई अवश्य आवश्यक थिक जे अनुवादक, मूल भाषा
आ अनुवादक भाषा, दुनूक, शैली आ सौन्दर्यसँ सुपरिचित होथि. अन्यथा, अनुवादक मूल ग्रंथक भावकेँ अनुवादक भाषामें कोना व्यक्त करताह !
किन्तु, ई सब कहब जतबे सुलभ छैक, करब ततबे
कठिन.
सार्वविदित अछि, स्व. आचार्य सुरेन्द्र झा
‘सुमन’कें अनेक आन भाषाक सहित संस्कृत-मैथिली-हिंदी-बांग्ला पर समान अधिकार
रहनि. ओ कतेको संस्कृत आ बांग्लाक ग्रन्थक हिंदी आ मैथिलीमें उत्कृष्ट अनुवाद केने
छथि. तथापि, आचार्य सुमनजी अनुवाद आ मूल
केर बीचक अंतरकें कोना स्पष्ट करैत छथि से हुनके सँ सुनी.
वेदवाणीक ‘ऋचालोक’क नामसँ प्रकाशित अपन अनुवाद
में सुमन जी कहैत छथि, ‘ सद्यः रसायल रसाल ओ चिर-बसिआयल अमौट में जेना आस्वाद-भेद अछि से (सभ वेदवाणी एवं लोकवाणी में एतय) संगते. [5]
काव्यक अनुवादक जटिलताक संकेत
आचार्य सुमन जी एक ठाम आओर देने छथि: संदर्भ थिक हुनक अनुगीतांजलि. एहि ग्रन्थमें सुमन जी
कवीन्द्र रबीन्द्रनाथ
ठाकुर एक सौ चुनल गीत सबहक मैथिली अनुवाद प्रकाशित केने छथि. एहि पोथीक स्वर-संधानिकामें सुमन
जी लिखैत छथि:
‘... गीत रचना सँ सय गोट गीतक चयन कय मातृभाषाक माध्यमे
ओकर प्रतिबिम्बन प्रयास कयल अछि. परंच, ओ कहाँ धरि उपयुक्त भेल, ओ अपनहु पता नहिं. अनुवाद
तँ एकरा कहि
नहिं सकै छी, कारण,
‘छायेवानुगच्छत्’ क एतय निर्वाह नहिं. कतहु रूप छाया तँ कतहु भावे, कतहु मर्म मात्रे. एतय विचार हुनक, तँ स्वर संचार अपन ; भाव निबन्ध हुनक तं, छंदबन्ध अपन ...’ [6]
यद्यपि,एहि अनुवाद कार्यमें 'हुनक (रबीन्द्रक)
पद-पद्धतिक अनुगमन पूर्वक कण्ठ में कण्ठ मिलाय
हुनक स्रोत-स्वरक अनुसरण’ कें सुमन जी अपन
उद्देश्य-जकाँ व्यक्त केने छथि. संभव अछि,
एहि कृतिक, मूलसँ भिन्न स्वरुपक कारण, सुमनजी मौलिकता हो, वा ‘‘छायेवानुगच्छत्’
क सीमाबद्ध रीतिक अनिवार्यताक अनुवाद पर विपरीत प्रभावसँ बंचबाक कारण
हो. किन्तु, एतबा तँ अवश्य जे सुमन जी-सन सिद्ध कवि-अनुवादक सेहो कविताक अनुवादमें स्वतंत्रताक
आवश्यकताक अनुभव केलनि. आ ई समस्या तखन उत्पन्न भेले जखन बांग्ला
आ मैथिली भाषाक समानता, आ अनुवाद में सुमन जीक दक्षता निर्विवाद
अछि.
सत्यतः,
कविताक छायानुवादहु में अनुवादककें मूल लेखकक भावकें बुझबामें अनेक ठाम
अनुमानसँ काज चलबय पड़ैत छनि , से एकटा आओर विद्वान – जी यू पोप केर उक्ति सँ प्रतीत होइत अछि; सन्दर्भ
‘कुरल’ केर अंग्रेजी अनुवादक छैक :
(‘कुरल’ केर) हमर अनुवाद विश्वसनीय (faithful)
अछि. अस्तु, हम अनुवाद में
एकोटा एहन विचार वा भावकें निहित नहिं कयल, जकरा कविक मूल भाव
बुझबाक हेतु हमरा कोनो ठोस आधार नहिं प्रतीत भेल.’[7]
अर्थात् विश्वसनीय अनुवादक प्रयासक अछैतो,
अनुवादककें (बहुतो ठाम) रचनाकारक
मूल भावकें ‘अनुमान करय’ पड़लनि.
ई थिकैक ओहि भाषाक काव्य-कृतिक अनुवादक समस्या
जाहिमें अनुवादक जी यू पोप अपन जीवन भरिक श्रम लगा देलनि !
आब विश्वक आन भाषासँ मैथिलीमें अनुवादक चर्चा करी. हमर विचार अछि, जखन आन भाषाक गप्पकें
मैथिलीक सुपरिचित उदाहरणक माध्यमसँ प्रस्तुत कयल जाइछ तँ पाठक
मूल कविक भावकें बुझिते टा नहिं छथि, बल्कि अकस्मात् चमत्कृत भ' उठैत छथि. एकर विपरीत अपरिचित उपमा आ बलजोरीक उद्धरण पाठकक छाती पर भरिगर जाँत-जकां
प्रतीत होइछ ! फलतः, पढ़बाक आनंदसँ वंचित
पाठक ओहि पोथीकें किएक पढ़ताह !!
हम अपन एहि उक्तिक समर्थन में हम इतिहासकार ए एल बाशम केर उक्ति के
यथावत उद्धृत करैत छी:
“The
translations…….. In most cases they are not literal translations, since the
character of Indian classical languages is so unlike that of English that
literal translations are at the best dull and at the worst positively
ludicrous. I places I have taken liberty with the originals, in order to make
their purport clearer to the Western reader, but in all cases I have tried to
give them an honest interpretation of the intentions of their authors, as I
understood them.”[8]
अर्थात् अंग्रेजी आ प्राचीन भारतीय भारतीय भाषाक प्राकृतिक मौलिक
अन्तरक कारण संभव छैक जे कतहु शब्दशः अंग्रेजी
अनुवाद रसहीन आ हास्यास्पद भए जाइक.
एहन परिस्थिति में अनुवादक कें बोधगम्य बनयबाक हेतु अनुवादक कें मूल साहित्य केर आशय
आ अपन भाव-बोध पर विश्वास करय पड़लनि.
तें, संभव होइक तं अनुवाद कतहु मूल केर अनुगमन करय. मुदा, जं से संभव
नहिं होइक तं मौलिक ग्रंथक आशय जे अनुवादक कें बोध होइनि तकरा तेना प्रस्तुत करथि
जे पाठककें मूलक भाव बोधगम्य होइक. अनुवाद में एतबा स्वतंत्रता अनुवादक उद्देश्यक
सार्थकताक हेतु आवश्यक थिक, से हम मानैत छी.
संदर्भ :
1. Pope
The Rev. G U. A Tamil Hand-Book, 2nd edition, 1859. Madras: PR Hunt.
pp 154
2. ibid
3. S.K. Belvalkar. Rama’s
Later History or Uttar-Rama-Charit, 1915: Cambridge, Massachusetts, Harvard
University Press. Preface, Pp XXX.
4. Tagore Rabindranath. Geetanjali song offerings reprint
2016.Vishwabharati.
5.
सुरेन्द्र
झा ‘सुमन’.ऋचालोक
(वेद वाणी), प्रथम संस्करण 1970, पश्य ......
6. सुरेन्द्र झा ‘सुमन’. -अनुगीतांजलि,
प्रथम संस्करण, 1969,स्वर-संधानिका,
पृष्ठ संख्या ‘उ’
7. Pope Rev. G U: The ‘Sacred’ Kurral
of Tiruvalluva-Narayanar with Introduction, Grammar, Translation, Notes,
Lexicon and Concordance 1886: London: W H Allen & Co.
Introduction, xiv
8. Basham AL. The wonder that was
India: Preface to the second edition. 3 rd revised ed. 2019; New Delhi: Picador
India pp Xiii.
† metempsychosis = the supposed transmigration at death of
the soul of a human being or animal into a new body of the same or a different
species.