Saturday, June 12, 2021

गुलाब पलास भए गेल, मुदा, एखनो बिकाइए

 

रूप यौवन संपन्ना विशालकुलसंभवा

विद्याहीनां न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः

किशुंक वा पलासक फूलक चर्चा  सब ठाम   गुणविहीन सौन्दर्यक प्रतीकक रूप में होइत आयल अछि. संस्कृत साहित्य हो वा आन केओ होथि, ई उपमा जहिना छल, तहिना अछि. किशुंक तहियो उपहासक लक्ष्य छल आ आइओ अछि. तहिना, गुलाब सुगंधिसँ पूर्ण रूप-गुण प्रतीक पहिनो छल, एखनो अछि. फलतः, मांग आ आपूर्तिक नियम केर पालन करैत गुलाबक एक-एक टा कली बाज़ार में पांचसँ पचास टाका में बिकाइत अछि. मुदा, कोनो मित्रकें जन्मदिन पर उपहार में देबा ले वा अपन प्रेमिका/ संगिनी कें वैलेंटाइन डे, जन्मदिन, वा कोनो आन अवसर पर उपहारक रूप में देबा ले हाल-साल में गुलाबक फूल किनलहुँ–ए? हम किनलहुँ–ए. जंगली गुलाबक विपरीत बाज़ारमें उपलब्ध गुलाब में आब कोनो सुगंधि नहिं. मुदा, हमरा अहाँकें से बुझबा में आयल ? आ जं से बुझबा में अयबो कयल, तं, की अहाँ गंधहीन गुलाब किनब छोड़ि देल. नहिं. किन्तु, किएक ? एतय हम एहि विन्दु पर विचार करैत छी.

आब एतय एहि विषयकें कनेक फड़िछाबी. तें, एहि विषय पर विचारक हेतु हमरा लोकनि ई सोची जे लोक गुलाब किएक तोड़इत अछि, किएक किनैत अछि. जं विशुद्ध वैज्ञानिक दृष्टिसँ  देखी तं गुलाब आ पलास केर गुण धर्म में कोनो समानता नहिं. गुलाब गुणक खान थिक, तं पलास गुणविहीन सौन्दर्यक उदाहरण. गुलाबक उपयोग गुलाब-जल, इत्र, गुलकंद आ अनेक प्रकारक भोजन आ पेय बनयबा में होइछ. दक्षिण भारतमें  पलासक फूल कतहु-कतहु शिवकें पूजामें चढ़इत छनि. कतहु अग्निहोत्र में पलासक काठक  प्रयोग होइछ. किन्तु, गुलाबसँ हमरा लोकनिक परिचय  केवल सुगंधिसँ अछि. जखन सुगंधिए नहिं तं गुलाब की. किन्तु, एखन जे गुलाब ‘उत्तम’ गुलाबक नामसँ बाज़ार में बिकाइछ लोक ओहि में खरीददार सुगंधिक मांग किएक नहिं करैछ ? अथवा जं गुलाब गंधहीन होइछ तं लोक किनैत किएक अछि ? की गंधहीन गुलाबक प्रति शिकाइतक अभाव लोकक बदलैत सौन्दर्यबोधक प्रतीक थिक ? वा, की बाज़ार ग्राहककें केओ, किछुओ, कोनो दाम पर बेचि सकैत अछि ? प्रायः उत्तर अछि,  हं. एकर उदाहरण एखन समाजक आनो क्षेत्रमें अबैत रहल अछि.

राजनीति वा समाज-सेवाक क्षेत्रमें पहिने गुणवान लोक अबैत छलाह. तखन किछु त्यागी आ किछु अपराधी लोकनि अयलाह. आब राजनीति में अपराधी आ भ्रष्ट लोकक बाहुल्य अछि. किन्तु, प्रत्येक पांच वर्ष पर ओएह लोकनि चुनावी मैदान में उतरैत छथि, जितैत छथि, आ हमरा लोकनि पर राज करैत छथि. हमरा लोकनि प्रसन्न छी. बाज़ार जे उपलब्ध करबैत अछि धड़ल्ले बिका रहल अछि.

शिक्षाक क्षेत्र सेहो एहि प्रकारक उदाहरणसँ भरल पड़ल अछि. पछिला शताब्दीक छठम दशकमें शिक्षाक जे अवनति आरम्भ भेल तकर असली असरि आब देखबामें आबि रहल अछि. पढ़ल लिखल लोककें  जीविकाक पात्रता नहिं छनि. डाक्टर-इंजिनियर लोकनि में दक्षताक अभाव प्रत्यक्ष अछि. किन्तु, गंधहीन गुलाब-जकाँ सब बिका रहल अछि.

तें हम सोचैत छी, कि गंधहीन गुलाबक बिकायब हमरालोकनिक उदासीनताक कारण थिक ? कि बाज़ारबाद हमरालोकनिक उपर तेहन सवारी कसने अछि जे प्रतियोगिता क अछैतो हमरा लोकनिकें अक्क-बक्क नहिं सुझैत अछि आ हमरा लोकनिक आगू जे किछु राखल जाइछ हमरा लोकनि किनि लैत छी. उदारीकरण आ भूमण्डलीकरणसँ  तं ई अपेक्षा नहिं छल !          

 

Tuesday, June 8, 2021

कोरोना की दूसरी लहर : कुछ विचारणीय विन्दु

 

2020 में COVID 19 की लहर खतम हो जाने के बाद,  सितम्बर से दिसंबर 2020 तक करीब तीन महीने लोगों ने चैन की सांस लेनी शुरू की थी. लोग-बाग़ बाज़ार जाने लगे थे. होटलों में बैठ कर खाने की इजाज़त शुरू हो गयी थी. दिन-प्रतिदिन अस्पताल में संक्रमण का डर तो था, लेकिन, लोग थोड़ा लापरवाह होने लगे थे. जनवरी से मार्च 21 के बीच तो अस्पताल में फ्लू क्लिनिक और COVID वार्ड बंद हो गया था. सचमुच, स्वास्थ्यकर्मी भी थक चुके थे. फलतः, साल भर के सख्ती के बाद  थोड़ी ढील से हमें आफ़ियत महशूस होनी लगी थी. लेकिन, मार्च 21 के अंत तक एकाएक सूरत बदलने लगी. अप्रैल की एक तारीख से महाराष्ट्र से कर्नाटक में दाखिल होने के लिए कोरोना मुक्त होने का प्रमाण-पत्र माँगा जाने लगा. ऐसी ही परिस्थिति  में 31 मार्च को हम पांडिचेरी से बंगलोर आए.

नया शहर, नई कोलोनी. हम अपरिचित थे. दो चार परिचित आगे आये, खैरमकदम भी किया. पर नए लोगों से दोस्ती करना तो दूर, पुराने परिचित को पहचानना मुश्किल था. सभी के चेहरे पर मास्क. बीस साल के परिचित युवक अब सिनियर सिटिज़न हो चुके थे. बहुतो कें सर पर घने बाल की जगह चमकदार चमड़ी या सन-से सफ़ेद बाल ले चुके थे; मैं भी तो बदल गया हूँ. 2 गज की दूरी के कारण किसी के नजदीक फटक नहीं सकते, यह भी नहीं पूछ सकते कि आप वो तो नहीं. एक दिन मैं ने हिम्मत की. एक फौजी-से लगते सरदार जी को अभिवादन करते उनकी और मुड़े तो महानुभाव और दो मीटर पीछे हंट गये.हम तो पहले ही दो मीटर पर थे, अब तो चिल्ला कर बात करने के आलावा और कोई चारा न था. खैर, परिचय की औपचारिकता पूरी की. पता चला कि सज्जन मेरे पुराने परिचित नहीं थे . इस वाकये के बाद मैंने फिर कभी किसी के नज़दीक फटकने की कोशिश न की. करता भी कैसे. यहाँ के एक सज्जन ने यहाँ के बासिंदों की whatsapp जमात पर अपनी खासी नाराजगी जाहिर की थी. महोदय की शिकायत थी कि टहलते वक्त लोग-बाग़ उनके सामने आ जाते हैं. यह अनुचित था. श्रीमान् सेवानिवृत्त फौज़ी अफ़सर है. इसलिये उन्होंने धमकी दी थी कि सड़क पर चलते अब  वह अपने हैट के आगे छौ फीट का लम्बा डंडा लगबा लेंगे जिससे लोग उनके सामने न आ सकें. मुझे नहीं  मालूम नहीं, उन्होंने किस प्रकार के हैट का अविष्कार किया है ! लेकिन, यह सब, आगे जो होता गया उसके सामने, केवल मसखरी-जैसी थी.

लगा, एकाएक शहर की हवा भोपाल-जैसी हो गयी है.  भला बच्चे कहाँ समझे ऐसी बात. हर दिन छौ से सात साल की  तीन-चार लडकियाँ और एक-दो लड़के गार्ड की मनाही की परवाह किये बिना हमारे सामने के मण्डप पर रोज आ जाते थे. लेकिन, आखिरकार उन्हें भी गार्ड ने खदेड़ डाला. बच्चों के जान पर आफत जो थी ! फिर कोलोनी एकाएक सूनसान हो चला. लोगों ने सुबह शाम की सैर बंद कर  दी. साफ़-सफाई कर्मचारी भी आधे हो गये. इलाका कन्टेनमेंट जोन में तब्दील हो गया. साग-सब्जी के दूकान के पास बंदिशे शुरू हो गयी. राज्य और शहर से आती खबर तो दिल दहला देने वाली थी. एक दिन में पैतालीस-पचास हज़ार नए रोगी. दिन भर में 500 से 700 मौतें. नए-नए श्मशान भूमि के बन जाने के बाद भी अपने परिजन के दाह-संस्कार के लिए  हमारे एक मित्र को प्रतीक्षामें सुबह से रात को दस बज गये. तब कभी जाकर नम्बर आया. समाचार पत्र और टीवी में श्मशान भूमि में एक साथ खुले तंदूर-जैसे एक साथ पचासों चिताएं अगर दहला देनेवाली थीं, तो बाद में जो खबर आयी उससे विचलित हुए बिना नहीं रहा जा सकता है. दैनिक ‘हिन्दू’ समाचार पत्र में एक साथ साढ़े आठ सौ अस्थिकलश की तस्वीर छपी थी. इन कलशों को जिस सम्मान के साथ पंक्तिबद्ध और मालाओं के साथ रखा गया था जीवन काल में शायद उन नागरिकों को ऐसा आदर-सम्मान नसीब नहीं हुआ होगा.  समाचार था, कि मृतकों के परिवारजन अस्थि-संचय के लिए नहीं आए. सरकार ने  अस्थियों का सामूहिक विसर्जन किया. सचमें, लोग आते भी कैसे ! शहर में लॉक-डाउन. गाड़ियाँ चलतीं नहीं. चिताएं लगातार जलती थीं. जलती चिता से अस्थि कौन चुने. और चुने भी तो तब जब चिताएं बुझे. यहाँ तो इस विश्वव्यापी  विपत्ति में चिताएं अहोरोत्र जल रहीं थी. किसी माँ  को केवल बेटे-बेटियों और पति ने कंधा दिया, तो कहीं किसी को कंधा देनेवाला अपना मिला ही नहीं. परिवार उजड़ गये, बच्चे अनाथ हो गये. अगर शुमार मौतों के मृतक के मृत्यु प्रमाण-पत्र में कारण के तौर पर कोरोना का संकेत हुआ, तो सरकार की अनुग्र राशि मिलने की संभावना जीवित है. अन्यथा, वो भी नहीं. हजारों लावारिश  लाशें गंगा माँ की गोद में इस राज्य से उस राज्य में बह गयीं. न मरनेवालों में उनकी शुमार हुयीं ,न उनके परिजनों को अनुग्रह राशि मिलेगी. जो हजारों लाश गंगा के किनारे रेत में दफन किये गये, लोगों ने उनकी कफन तक को नहीं छोड़ा. इस पर जो भी बंचा था, और जिस किसी ने भी जुवान खोली, सरकार ने उसे भी उसकी जर-जमीन कुर्क करने की धमकी दे डाली. संवेदनहीनता का ऐसा मिशाल इतिहास में शायद ही मिले. मगर, कहते हैं

                        इस शहर में वो कोई बारात हो या वारदात,

अब किसी भी बात पर खुलती नहीं है खिड़कियां

-       स्व. दुष्यंत कुमार

इतना ही नहीं, इस महामारी के वक्त लोगों की मानसिकता और व्यवहार में भी आमूल परिवर्तन आ गया है ; यहाँ मैं चिन्ता और अवसाद जैसे मनोरोग की बात नहीं कर रहा. बहरहाल, सावधानी और भय जैसे कुछ परिवर्तन को तो समझा जा सकता है, किन्तु, लोगों का लोगों से भय समझ के बाहर हैं. लोग-बाग पड़ोसी को फोन करने से कतराते हैं, एक दूसरे का हाल-चल पूछना तो दूर. पता नहीं कौन किस सहायता की मांग कर दे. वैसे इस लॉक-डाउन में कौन किस की, क्या सहायता कर सकता है. पर मैं देखता हूँ, कोलोनी के भीतर सब्जी की दूकान के आसपास बातचीत तो दूर, लोग एक दूसरे को अभिवादन भी नहीं करते ! आखिर, क्या पता, लोग डरते हों, कहीं हमारी श्वास ही दूषित न हो जाय, और बात करने से ही कोरोना का संक्रमण हो जाये !!

रोगी के परिजनों द्वारा चिकित्साकर्मियों पर आक्रमण इस राष्ट्रीय विपदा का दूसरा काला चेहरा है. यह बीमारी नयी नहीं है. लेकिन, समाज को सोचना होगा, इसका निराकरण क्या है. स्वास्थ्यकर्मियों की सुरक्षा का भार सरकार पर तो है ही, पर समाज में एक दूसरे की सुरक्षा, नागरिकों का एक दूसरे के प्रति सद्भाव पर टिका है. 

दूसरी ओर, प्रति दिन टीकाकरण की नई-नई सूचना आ रही है. किन्तु, टीकाकृत नागरिकों की संख्या भारत की कुल संख्या का छोटा हिस्सा है. राष्ट्रीय पोलियो अभियान में सरकार का नारा था, ‘एक भी बच्चा छूटने न पाए’. रेल स्टेशन, बस स्टैंड, एअरपोर्ट पर बच्चों को पोलियो की बूँदें पिलाकर हमने पोलियो को हराया था. हम कोरोना जैसे जानलेवा रोग के लिए ऐसा क्यों नहीं कर सकते थे ! इस प्रश्न का जवाब हमें ढूढ़ना पड़ेगा. सभी के लिए टीका खरीदने का केन्द्र सरकार का निर्णय स्वागत-योग्य है. किन्तु, सरकारें महामारी अधिनियम या राष्ट्रद्रोह अधिनियम जैसे कानून नागरिकों के प्रश्न पूछने के अधिकार नहीं छीन सकते ! किन्तु, अभी हमारी प्राथमिकता जान बंचाने की है ! और वह भी एक ही बीमारी से नहीं . अब एक और दूसरी महामारी- मुकोरमायकोसिस (mucormycosis)- से भी जान बंचाना है.

मेरा मानना है कि, अन्य कारणों के अलावा कोर्टिकोस्टेरॉयड (Corticosteroid) के अंधाधुंध प्रयोग से मुकोरमायकोसिस का  रोग एकाएक फैला है . विकसित देशों में चिकित्सा पद्धति के विपरीत, भारत में हम लोग  रोगों के नियमबद्ध चिकित्सा प्रक्रिया के आदी नहीं हैं. हर चिकित्सक रोगों की चिकित्सा अपने तरीके और ‘अनुभव’ के अनुसार करते हैं. कोरोना के बारे में चिकित्सा समुदाय का अनुभव तो अवश्य सीमित है.  फलतः, दुष्परिणाम समय-समय पर सामने आता है. अगर यह भी माना जाय कि मुकोरमायकोसिस (mucormycosis) त्रुटिपूर्ण चिकित्सा के कारण नहीं हुआ है, तब भी मुकोरमायकोसिस (mucormycosis) के रोगियों के चिकित्सा रिकॉर्ड के निष्पक्ष जांच से इस रोग की एकाएक वृद्धि के कारणों का पता लगाया जा सकता है. संभव है, शीघ्र ही वैज्ञानिक भारत में मुकोरमायकोसिस (mucormycosis) की संख्या में अचानक वृद्धि के कारण की जड़ तक पहुंचें. यह आवश्यक है.

   

 

मैथिलीकें जियाकय कोना राखब: समस्या आ समाधान

कीर्तिनाथक आत्मालापक पटल पर 100 म  लेख   मैथिलीकें जियाकय कोना राखब: समस्या आ समाधान  कीर्तिनाथ झा वैश्वीकरण आ इन्टर...

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