Monday, July 12, 2021

प्रवासी जीवन में मिथिला आ मैथिलीक उपस्थिति

 

6 सितम्बर 2009, रवि दिन. न्यूयॉर्क सिटी, अमेरिका. हमरा लोकनि टाइम्स स्क्वायर लग घूमैत रही. हमरा संग  हमर पत्नी, कन्या, जमाय आ हुनक एकटा गुजराती मित्र परिवारक  रहथि. सड़कक कातक साइड-वाक पर नीक चहल-पहल छलैक. अकस्मात्, हमरा लागल, पाछूसँ  छूबि केओ हमर ध्यान आकृष्ट केलनि-ए. उनटिकय  देखैत छी, तं एकटा मैथिल परिवार : युवक, पत्नी, बरख दसेक एकटा बालक आ एकटा छोटि कन्या. मुसुकाइत कहलनि, ‘अपने सब कें मैथिली बजैत सुनलहु, तें...’ एतेक दूर में अपन भाषा बजैत नागरिकसं भेंट भेने जेहने हर्ष आ कौतूहल ओहि  मैथिल परिवारकें भेल रहनि, तेहने हमरो लोकनिकें भेल छल. हमरा लोकनि ओत्तहि ठाढ़े-ठाढ़ पांच मिनट परिचय-पात कयल आ अपन-अपन बाट धयल. मधुबनी जिलाक निवासी ओ युवक न्यूयॉर्कहिं में काज करैत रहथि.न्यूयॉर्कक टाइम्स स्क्वायरक भीड़में मैथिली सूनि एहि परिवारक  अचानक आकृष्ट हयब एतबा तं अवश्य सिद्ध करैछ, जे विदेशहु में रहला उत्तर, मातृभाषा एकटा चुम्बक प्रमाणित होइछ. 

                                       न्यूयॉर्क मधुबनीक मैथिल परिवारसँ अचानक भेंट, वर्ष 2009  

तथापि, प्रवासी जीवन में मिथिला आ मैथिलीक उपस्थितिकें महत्वकें प्रमाणित करबाले केवल एकटा ई उदाहरण पर्याप्त नहिं. तें, एहि विषयक कनेक विस्तारसं जाँच करी.                                                                                         सत्यतः, प्रवासी जीवन में मिथिला आ मैथिलीक उपस्थितिक जांचले दू प्रकारक मापदंड चाही. एक, प्रवासी मैथिल लोकनिक बीच सर्वेसँ  ई ताकल जाय जे ओ लोकनिक अपन जीवनमें मिथिला आ मैथिलीक केहन उपस्थितिक अनुभव करैत छथि; दू, भारतसँ  विदेश जाइत मैथिल अपन देखल अनुभवक आधार पर स्वतंत्र  निष्कर्ष  निकालथि जे ओ लोकनि विदेशमें प्रवासी मैथिल लोकनिक जीवन में मिथिला आ मैथिलीक केहन उपस्थिति देखलनि. हमरा अपन निष्कर्ष निकलबाक हेतु एहि दुनू म सं कोनो मापदंडक नहिं अछि. तें, हमरा अपन परिवारजन सहित अनेको प्रवासी लोकनिक संग देशसं बाहर आ भारतक भीतर जे सम्पर्क भेल अछि, ओही सम्पर्कक अनुभवक आधारपर हमर हम अपन विचार एतय रखैत छी.

जं प्रवासी लोकनिकें कनेक काल ले छोडि दी, तं, अपन इलाकाक प्रति लगावक एकटा भिन्न उदाहरण दैत छी. ईसवी सन 2006 में एगारह बजे रातिक करीबक एक ट्रेन में चढ़बाक क्रममें धक्का-धुक्कीक कारण, तीन गोटे नई दिल्ली स्टेशन पर अबैत ट्रेनक सामने रेलक पटरी पर खसिकय मरि गेलाह. हमरा अनुमान अछि,  फगुआ, दसमी, आ छठिक पूर्व दिल्ली-नई दिल्ली स्टेशन पर घरामुंहा बिहारी लोकनिक एहन भीड़  बहुतो गोटे कें देखल हयत. प्रश्न उठैछ, पर्व-त्यौहारक अवसर पर लोक गाम अबैले कोना आफन तोड़ने रहैछ, देशक भीतरक प्रवासी लोकनिकें गाम अपना दिस किएक  एना घीचैत छनि, जखन कि दशहरा–होली-दिवाली-छठि आब दिल्लियोमें मनाओल जाइछ, एहि सब पर्वक छुट्टी दिल्लीओमें  होइत छैक. माने, पर्वक  आलावा सेहो गाम में एहन किछु अदृश्य आकर्षण अवश्य छैक जे लोककें गाम दिस झिकैत छनि : ककरो माता-पिता, ककरो परिवार आ नेना आ ककरो केवल अपन भूमि आ कमला-कोसीक धार, वा गोसाउनि-ब्रह्मबाबा अपना दिस झिकैत छथिन . विदेश बसैत प्रवासी भारतीय लोकनि सेहो अपन भूमिक दिससं एहने घिचावक  अनुभव करैत छथि, से सब कहताह. किन्तु, कतेको बेर समयक अभाव, दूरी, आ व्यय बाधा बनि ठाढ़ भ’ जाइछ.  एतबे नहिं, देश दिस घिचाव आ जुड़ाव केर  आओर अनेको सूत्र छैक, जे कखनो आवश्यकतासं प्रेरित होइछ, आ कखनो महज भावनात्मक तन्तुक जोरसं  सेहो. हम अनेको परिवारसँ परिचित छी जे जीवन समुद्रपार बितौने छथि, किन्तु, सन्तान लोकनिक हेतु जीवन संगीक तलाश मिथिलहि में आबि कय कयने छथि. एकर अपवादो अवश्ये भेटत. किन्तु, ई प्रवासी लोकनिक जीवन में मिथिला आ मैथिलीक उपस्थितिक एकटा विन्दु भेल तं अवश्य.                                                            आब एकटा दोसर गप्प. की प्रवासी लोकनिक अपन जीवनमें मैथिल समाजक अभावक शून्यताक अनुभव करैत छथि ? हमरा जनैत, सब दिन जं नहिओ तं, कहिओ काल अवश्य. प्रवासी लोकनि जतय कतहु छथि अपन  देश आ भूमि पर  छूटल  अपन समाजक अभावक अनुभव अवश्य करैत छथि. तें, जतहु मैथिल लोकनिक पर्याप्त संख्यामें छथि, अपन गाम-घरक मैथिल समाजक कमी कें दूर करैक हेतु, मिथिला-मैथिलीक संस्था बनाकय, एक दोसराक सम्पर्क में रहैत छथि.  आओर नहिं किछु, तं,‘कठौती में गंगा’ तं सब सुननहिं छी. सएह सही.  यूनाइटेड किंगडम (UK) में लन्दनमें मिथिला सोसाइटी यू के नामक एकटा संस्था सक्रिय अछि से तं हमरा बूझल अछि. ई संस्था यूनाइटेड किंगडम (UK) क विभिन्न भागमें काज करैत, आ बसल, मैथिल लोकनिक संस्था थिक. एहि संस्थाक सदस्य लोकनि अपन संस्थाक दिससं समय-समय पर सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमक आयोजन करैत छथि, आ अपन पर्व-उत्सव मनबैत छथि. भारत सं अबैत साहित्य आ ललितकलासँ  जुड़ल व्यक्ति सबहक संग सम्मेलन, आ हिनका लोकनिक अभिनन्दनक हेतु सेहो, ई संस्था आयोजन करैत अछि, से सुनल अछि. संस्थाक माध्यमसँ सबहक एक दोसराक सम्पर्क में रहलासं बेर-कुबेर पर एक दोसराक सहायता सेहो होइत छैक. एतय एकटा गप्प बूझब आवश्यक, जे  घर सं जतेक दूर जायब, अपन देश-प्रदेशमें सामान्यतया जे छोट-छोट देवाल देखबामें अबैछ से सब खसय लगैछ. तें, इंग्लैंड-अमेरिका तं छोडू बंगलोर धरिमें मैथिल लोकनि समस्त बिहार-उत्तरप्रदेशक हिंदी-भोजपुरी-मैथिली भाषी लोकनि संग मीलि कय सामूहिक संस्था चलबैत छथि. एहिसँ  समूह सेहो पैघ होइछ आ एके संग अनेक भाषिक समुदायकें अपन समाजक संम्पर्कमें रहबाक बोध सेहो होइत छैक. तें, विदेशमें सेहो संस्था सब राष्ट्रीय स्वरुप ल’ लैछ. तें, विदेशमें  भारतीय नागरिकक वृहत समाजक प्रतिनिधि संस्था सब सेहो लोककें क्षेत्रीय मित्रभाव आ मेलजोलक अवसर आ सुविधा दैत छैक.                                                                                   

आब अमेरिकाक गप्प करी. अमेरिका आकारमें योरपक देश सबसँ बड्ड पैघ. शहर सभक आकार सेहो तहिना. तें, पैघ शहरक गप्प हम नहिं कहि सकब. किन्तु, हमरा अमेरिकाक नार्थ कैरोलिना राज्यक एकटा छोट-सन यूनिवर्सिटी टाउनशिप, चैपल हिलमें, किछु दिन रहबाक अवसर भेल छल. ओहि समयमें चैपल हिलमें किछु मैथिल छात्र आ नोकरिहा लोकनि रहथि. हुनका लोकनिसँ हमरा सम्पर्क भेल छल. ओतय ओ लोकनि एक दोसरासं जुड़ल  अवश्य रहथि. हमरा एक गोटेक ओतय जयबाक अवसरो भेटल. ई दम्पति, दुनू, मैथिल. घरमें जनमौटी नेना रहनि. बच्चाक जन्ममें सहायताक हेतु नेनाक नानी आयल रहथिन तें हुनकोसँ  भेंट भेल. हिनका लोकनिक परिवारमें भाषा मैथिली आ सामान्यतः भोजन-सांजन मैथिल रुचिक.

हालमें, अमेरिकामें रहैत नेपाली मैथिल लोकनिक सांस्कृतिक गतिविधिक एकटा समाचार काठमांडूसं प्रकाशित अंग्रेजी दैनिक The Rising Nepal क 28 दिसंबर 2019 क अंक में भेटल. समाचारक अनुसार एसोसिएशन ऑफ़ नेपाली तराईअन इन अमेरिका (ANTA ) आ मैथिल्स ऑफ़ नार्थ अमेरिका (MoNA ) क संयुक्त सहयोगसँ अमेरिकाक न्यू जर्सी शहरमें 14 दिसंबर 2019 क विद्यापति समारोह आयोजित भेल छल.एहि समारोह में नेपालसँ आमंत्रित किछु कलाकार आ साहित्यकार सेहो ओतय गेल रहथि. समाचारक अनुसार एहि समारोह में अमेरिकाक विभिन्न भारतीय आ नेपाली समुदायक नेता लोकनि सेहो सम्मिलित भेल रहथि.

                 न्यू जर्सी अमेरिका में विद्यापति पर्व. फोटो: The Rising Nepal, काठमांडू के सौजन्यसँ 

हमर अनुभव कहैछ, मैथिल विदेशमें जतय छथि, अपन पीढ़ी धरि मैथिली बजैत छथि, आ बहुधा अपन रूचि आ सुविधाक अनुसार भोजन-सांजनमें
  मैथिल-जकां खाइत-पिबैत छथि. किन्तु, दोसर पीढ़ी जाइत-जाइत मैथिली भाषा आ व्यवहार विलुप्त भ’ जाइछ. एकर कतेको कारण छैक. पहिल तं सामान्य जीवनमें भाषा आ व्यवहारक अभाव. दोसर, विवाह-दानक हेतु समाजक परिधि जेना-जेना पैघ भ रहल छैक, परिवारसँ मैथिली कतियाअल जा रहल अछि. भारतहु में बसैत मैथिल परिवारहुक स्थिति एहने अछि. तें, जाहि परिवारमें पति-पत्नी दुनू मैथिली भाषी नहिं छथि, ओहि परिवार में नेना-भुटकाकें मैथिली सुनबाक अवसर कदाचिते भेटैत छैक. अस्तु, ओतय मैथिली बिलाय लगैछ. मुदा, जं पति-पत्नी दुनू मैथिली भाषी छथि, तं, बच्चाकें लोक भले मैथिलीमें नहिं टोकौक, बच्चा माय-बापक बीचक गुप्प सुनिओकय किछु मैथिली अवश्य सीखि लैछ, से हम अनुभवसं कहैत छी. किन्तु, जं अहाँ पूछब, प्रवासी लोकनिक जीवनमें मैथिलीक स्थान केहन छनि, तं, हम एतबे कहब, जे भारतहिंमें मिथिलासं दूर बसैत मैथिलक जीवनमें मैथिलीक स्थान केहन छनि ! उत्तर सूनि हताशा हयब सम्भव, किन्तु, ई सत्य थिकैक. प्रवासी लोकनिमें कें जे मैथिलीकें जिया कय रखने छथि, ओ केवल अपन ममत्वसं, आवश्यकतासं नहिं. ततबे नहिं, जहिना भारतमें रहितो बहुतो मैथिल, मैथिली पढ़ब नहिं जनैत छथि, तहिना प्रवासी मैथिल म सं बहुतो मैथिली ने पढ़इत छथि, ने पढ़ि सकैत छथि. किन्तु, समस्या ई छैक जे  प्रवासी मैथिली पढ़हु चाहैत छथि, तं अंतर्राष्ट्रीय मार्केटिंग प्लेटफार्म सब पर मैथिलीक पोथीक अभावक कारण मैथिलीक पोथी हुनका सबहक लग पहुंचि नहिं पबैछ. अतः, मैथिलीक प्रति ममत्व रहितो ओ लोकनि मैथिलीसं दूर भ’ जाइत छथि. तें, अंतर्राष्ट्रीय मार्केटिंग प्लेटफार्म पर मैथिलीक उपस्थितिक आवश्यक. कारण, हमरा जनैत, विदेशमें मैथिलीक मांग सेहो छैक. तकर एकटा प्रमाण मैथिली भाषाक हमर अपन ब्लॉग ‘ कीर्तिनाथक आत्मालाप’ थिक. पिछला दस वर्षमें पाठक लोकनि हमर एहि ब्लॉगक पेजकें आइ धरि करीब 88834  उलटौलनि-ए, से analytics कहैत अछि . आश्चर्यक गप्प ई, जे एहि म सं अधिकांश पाठक समुद्र पारेक छथि ! माने, समुद्र पारहु सं लोक मैथिली तकैत तं अवश्य छथि !                                           

अंतमें, वर्तमान मिथिलाक समाजक हेतु प्रवासी मैथिल लोकनिक योगदानक गप्प करी. सफल पूत सदायसँ अपन समाजक उत्थानमें योगदान करैत एलैये.  आ तकर आशा उचितो. किन्तु, अपन समाजक उत्थानक हेतु प्रवासी लोकनिक योगदान ले ककरो तं डेग उठबहि पड़तैक. हम पूर्णतः विश्वासक संग ई नहिं कहि सकैत छी, जे प्रवासी मैथिल लोकनि सामूहिक रूपें पैघ स्तरपर मिथिलामें शिक्षा, समाज-सुधार, वा आधारभूत संरचनाक सुधारक कोनो अभियानक सहयोगी छथि वा नहिं. किन्तु, व्यक्तिगत स्तर पर कतेको गोटे मिथिलाक छोट-छोट स्थानीय अभियानमें सहयोग करैत छथि तकर एक-दू टा सूचना हमरा लग अवश्य अछि. हमर अनुमान अछि, विदेश गेल बहुतो सफल मैथिल, गाम-घरक लेल आरम्भ कयल  इमानदार आ सार्थक स्थानीय पहलमें कम वा बेसी सहयोग अवश्य करताह. किन्तु, एहि हेतु पहिल डेग तं केओ उठाबथि. ई डेग वा पहल मिथिलहुसं आरम्भ भ सकैछ. 

( 'तीरभुक्ति' नामक पत्रिका में प्रकाशित )                                   

Thursday, July 8, 2021

मुस्कराहट का अकाल

 

मैंने उनको कभी साथ बैठकर हँसते-मुस्कराते नहीं देखा. देखता भी कैसे ? एक, उन्हें बैठने की फुरसत कहाँ थी ! दूसरी, मुस्कराने की न कोई सूरत थी और न वजह. कमला नदी माता तो थी, पर मनमौज. खेती थी, तो कमर तोड़. साल भर का अनाज खेत में पैदा हो गये तो ठीक. नहीं तो, आधा गाँव रात को भूखा ही सोता था. पर किसी को शिकायत नहीं थी ; सब की हालत एक जैसी जो थी. छप्पर पर फूस हो और बारिस में घर न चूता हो, भर पेट अन्न हो, पर्व-त्यौहार निबट जाए, और सामाजिक दायित्व पूरा होता रहे तो लोग सुखी समझे जाते थे. अगर इतना कुछ हो तो घरों में झगड़ों की वजह ही क्या है ! मगर ऐसा सुख कितनों को मयस्सर था गावों में उन दिनों. पर, परिवारों को टूटना लोगों ने सुना नहीं था, भले पति-पत्नी साथ बैठ कर हँसते-मुस्कराते नहीं हों. शायद ऐसा विकल्प उन दिनों तक उस समाज में लोग-बाग़ सोचते भी नहीं थे.

एक बार की बात है. एक ही  बरसात में कमला की बार-बार की बाढ़ ने लगे हुए धान को बर-बार डुबा-गला दिया था. और खेप की रोपनी का न समय बंचा था, न बीहन. फाकाकसी की नौबत थी. उस साल दूर किसी गाँव के किसी बड़े खेतिहर ने दीनानाथ को धान कटबाने का काम दिया. दीनानाथ ने सोचा कि चलो अगर दस मन भी धान मिल जाए तो साल निकल जाएगा. पर खुराक का धान क्या निकला, एक नयी आफत आ गयी. वहीं दूर के गाँव में  दीनानाथ बहुत जोर बीमार पड़े. आँखें पीली हो गयीं थी. गोरे चमड़े का रंग पीला हो गया था. लोगों ने कहा कमला बीमारी है. पर फ़िक्र की बात नहीं थी. उस गाँव में उस साल बहुतों को कमला रोग हुआ था, पर किसी की मौत हुई ऐसा किसी ने सुना नहीं था . परेशानी थी तो बस एक : दीनानाथ बेहद कमजोर हो गये थे, और उन्हें भूख बिलकुल नहीं लगती थी. उन्होंने किसी से कुछ पूछा नहीं. खुद ही सुना था, पुनर्नवा से पीलिया/ कमला ठीक हो जाता है. तो फिर क्या था. तालाब के भीड़ पर पुनर्नवा की क्या कमी थी. उनका टहलू, रामेश्वर, रोज एक मुट्ठी पुनर्नवा नोच कर दीनानाथ के लिए लाता था, सिलबट्टा पर पीसता था और दीनानाथ उसे पानी में घोलकर ‘ जय धन्वन्तरि’ के साथ पी जाते थे. करीब दो महीने बाद जब पीलिया कम हो गया और धान की दौनी पूरी हो गयी तो दीनानाथ गाँव वापस चले. फिर भी, जब दीनानाथ बैलगाड़ी पर धान की बोरियां लेकर घर वापस लौटे तो उनकी हालत पैदल चलने की नहीं थी. बस, ख़ुशी इतनी थी कि जब तक गेंहूं का फसल घर न आये, भुखमरी तो नहीं होगी. लेकिन, घर का मरम्मत, स्कूल का फीस, नमक-तेल-मशाले का खर्च तो चाहिये था.घर के मरम्मत के लिए कमला के किनारे से कास के चंद बोझ मिल गये. बाँस तो अपनी ही  बंसबिट्टी से काट लिया.  संयोग से, पाचू पासवान के पास उनकी एक बछिया पोसिया लगी थी. उसे दोनों मिलकर जटमलपुर के मेले में बेच आए, तो हिस्से में कोई सौ रूपये आने से नकदी की आफियत हुई थी. यह सभी दीनानाथ को याद है. उन्हें यह भी याद है कि एकबार उनके पढ़ने की ऐनक गुम हो गयी. हर जगह ढूंढा. कहीं नहीं मिला. अचानक उनके मन में एक बात आयी. हो न हो, ऐनक कहीं कुंए में तो नहीं गिर गयी. चमड़े की खोल में रखी  ऐनक अक्सर कुर्ते के  ऊपरी जेब में होती थी. क्या पता, कुंए से डोल से पानी खींचते वक्त, खोल सहित चश्मा फिसल कर कुंए में तो नहीं गिर गया ! बस क्या था, दीनानाथ ने चश्मे को ढूंढ निकालने की ठान ली. आस  पास के लड़के-जवान कुंआ के पास हरिदास के आँगन से बाँस की सीढ़ी और रस्सा ले आये. और ऐनक को पानी से निकालने, रस्से और सीढ़ी के सहारे दीनानाथ कुंए में उतर गये. बाद में उनकी ऐनक सन्दूक पर पड़े एक बक्से के पीछे मिली यह और बात थी. पर दीनानाथ किसी पर नाराज नहीं हुए. बच्चों की पिटाई नहीं हुई. ऐनक मिल जो गया. अब दरभंगा जाने का खर्च, परेशानी और जहमत से जो बंच गये थे.

उन बातों को अरसा बीत गया. दीनानाथ आज कल मुंबई में हैं. छोटे बेटे  और बहू के आग्रह पर कुछ दिन के लिए मिज़ाजपुर्शी के लिए मुंबई आए हैं. वैसे तो दीनानाथ की नजर में  इस महानगर में असुविधा ज्यादा और सुविधा कम है, लेकिन उनकी जरूरतें इतनी कम है कि उन्हें असुविधा क्यों कर होने लगी. उनके तरह के गाँव में रहनेवालों के शब्दकोष में असुविधा की जगह नहीं है !  पढ़ने को हिन्दी समाचार पत्र, पत्र-पत्रिकाएं और किताबें मोहल्ले के कोने पर मिल जातीं हैं. पान-सुपाड़ी-तमाखू की कभी आदत डाली नहीं. मिथिलाकें गांवों में उनके जवानी के  ज़माने भांग खूब चलता था. पर दीनानाथ को इस घास ने कभी आकर्षित नहीं किया. कहते थे, इस गाँव में जिनके पास अपने खेत और पेड़ नहीं हैं उन्हें भी खाने के लिए आम-जामुन-अमरुद- गन्ना की कमी नहीं होती. गर्मियों में ताड़कून खाईये, अगहन में सिंघाड़ा खाईए. यहाँ खाने की चीज की कमी है क्या, जो लोग मवेशी के तरह घास खाय, चिमनी के तरह धुआँ छोड़े. और ताड़ी ? ताड़ी तो आदमी को ताड़ पर चढ़ा कर सीधा नीचे गिरा देता है; अपनी और बांकी सबों की नजर में.

लेकिन, मुबई आकर दीनानाथ चकित हैं . अभी तक उन्होंने अपने बेटे  और बहू को साथ हँसते मुस्कराते नहीं  देखा है .  सोचते हैं, वक्त को क्या हो गया है ! लोग बातें करते हैं तो सिर्फ काम की, या दाम की. मुँह खोलते हैं तो बातें निरी बातें होतीं हैं. सुबह बारह बजे होता. तब तक अट्टालिकाओं के बीच सूरज कहीं दीखता नहीं, धूप भले हर जगह हो. ना आफिस जाने की ज़ल्दी ना बच्चे को स्कूल भेजने की तरद्दुद. यहाँ तो बच्चा है ही नहीं. जहां बच्चे हैं , बेचारे बच्चे भी दोस्तों की कमी के कारण बिलबिलाते रहते हैं. पर वह दीगर बात है. दीनानाथ जिस इमारत में हैं, उस पन्द्रह मंजिली ईमारत में दर्ज़नों परिवार और सैकड़ों लोग हैं. लेकिन न कोई किसी का पड़ोसी है, और न अपने घर के बाहर किसी का कोई चाचा-भतीजा, भाई-बहन, और ना कोई दादाजी-दादी. सभी कबूतरखानों में बंद, अपने ही काम में ज़ब्द हैं, अपने तनाव में कैद हैं. ऐसा क्या है इस वक्त में, इस शहर में कि मुस्कराहट नदारद है ! सब केवल भाग रहें हैं, जिंदगी गुज़र रही है, वक्त कट रहा है.

दीनानाथ अपने घर में  देखते हैं, शाम होते ही बेटा-बहू काम में लग जाते हैं. कहतें हैं, उन्हें भारत के दिन-रात से नहीं, अमेरिका के सूर्योदय-सूर्यास्त को देखकर उठना और सोना होता है . दीनानाथ सोचते है, ये बच्चे पैसे भरपूर कमाते हैं. मुंबई में जहां लाखों लोग फुटपाथ पर सोते हैं उनके बेटे-बहू के पास चार कमरे है. कारें हैं. घर में वह सब कुछ है जो दीनानाथ ने कभी सिनेमा में समृद्ध लोगों के घर में देखा था. पर एक ही चीज नहीं है, खुशियाँ. दीनानाथ अचम्भे में हैं ; सारी समृद्धि हैं, पर खुशियाँ नदारद ! मुस्कराहट की कमी दीनानाथ को नहीं खलती हैं, लेकिन, सोचते है, अगर घर में सुख-शान्ति और आराम का माहौल न हो तो लोग आफियत की सांस कहाँ लेंगे ? आदमी थक कर आराम कहाँ करेगा ? प्यार से जो मिजाज़पुर्शी होती है, वह कहाँ से आयेगा ? बच्चे कहाँ पनपेंगे, कहाँ पलेंगें. बच्चों के लिए घर तो ऐसा अभयारण्य है जहाँ चारों और शान्ति होनी चाहिये. और अगर यह सब होगा ही नहीं तो बसेरा और घोंसला किस काम के लिए है ? दीनानाथ की उम्र में आसमान में तूफ़ान के संकेत और परिवार में पनपता तनाव को सूंघने में वक्त नहीं लगता. उन्हें बेटे-बहू से कभी पूछने का मन करता है, बच्चे इस शहर में मुस्कराहट कहाँ बिकता है ? मैं अपने बंचे-खुचे पैसे से थोड़े मुस्कराहट खरीद कर ले आता हूँ. तुम लोग कुछ दिन उसे शरबत में मिला कर पियो, सेहत सुधार जायेगी ! मगर, दीनानाथ गंवई हैं, गंवार नहीं. वृद्ध है, बेवक़ूफ़ नहीं !! बरसों से सुनते आये हैं, सांई-बहू का झगड़ा, पंच बने लबड़ा ! यानी, सांई-बहू के  झगड़ा में जो बीच में  पड़ा वह या तो लबड़ा है, या वह आखिरकार लबड़ा कहलायगा !! इसलिए, चुपचाप अपना समय बिताते हैं. पर अब दीनानाथ को अब समय भारी लगने लगा है.

इसलिए,आखिरकार एक दिन दीनानाथ ने कहा, बेटे मेरा टिकट कटबा दो. बेटा और बहू दोनों उनकी ओर देखने लगे. इससे पहले कि बेटा और बहू पूछें, ‘बाबूजी जी कोई दिक्कत हुई क्या ? ’, दीनानाथ ने उनके सवाल का जवाब खुद ही दे दिया: बेटे मुझे गाँव के चौक के पास के उलुवा पाकड़ पेड़ के नीचे बैठे बहुत दिन हो गये. वहाँ के ठहाके थकन की गांठें खोल देते है, पाचन बढ़ा देती है. मुझे उलुवा पाकड़ की याद आ रही है !

दीनानाथ की बातें सुनकर बहू-बेटे हंसने लगे; याद और पाकड़ के पेड़ की ! बेटा, जयवीर ने कहा, बाबूजी कुछ दिन और रह कर शरीर को आराम दे दीजिये. आप गाँव में बैठने से तो रहे. यहाँ आराम से सेहत सुधर जायगी.

दीनानाथ मुस्कराने लगे. बोले, बेटे इस शहर में सब कुछ है, मुस्कराहटें नहीं हैं. इस शहर में मुस्कराहटों का अकाल है. मुस्कराहटों में अजीब की तासीर होती है, मुझे अपने लोगों के साथ खुलकर हँसे बहुत दिन हो गये. और दीनानाथ अगले हफ्ते ही कर्णपुर लौट आये .              

Wednesday, July 7, 2021

लघु लघु कथा : तितलियाँ

  

मनु के आने से लगा कि एकाएक हमारा घर रौशन हो गया है. जहाँ हमलोग घरके अलग-अलग कोने में बैठ किताबें पढ़ते थे, कहानियाँ लिखते थे, या टीवी देखते थे, वहीं आज हमारा घर एकाएक खुशनुमा बगीचे में तब्दील हो गया था.काल्पनिक ही सही; कहीं नायब फूल खिल रहे थे, कहीं चिड़ियाँ चहक रही थीं, तो कहीं हरी घास पर बच्चे लोट रहे थे. और तितलियाँ ? तितलियाँ तो बेशुमार थीं: काले, पीले, बैगनी, मटमैले, नारंगी . लग रहा था पूरे बैठकखाने में हवा में चारों तरफ तितलियाँ हीं तितलियाँ तैर रहीं थीं. इर्द गिर्द बैठ लोग अपने काम में मसरूफ थे, और मैं मनु को देख रहा था.  मैंने कहा, ‘मुझे भी एक तितली चाहिये !’ और मनु दौड़ता हुआ मेरे पास आया और एक छोटा सा तितली मेरे नाक पर चिपका कर जाने लगा तो मैंने उसके गाल चूम लिए. पर सूरज की रोशनी को मुट्ठी में पकड़ना आसन है क्या ! मनु पल झपकते मेरी पकड़ से बाहर निकल कर बैठकखाने के दूसरे कोने की ओर भाग गया. वहाँ उसके पास तरह-तरह के खिलौने थे , जिसमे उसकी जान बसती थी: खिलौने बच्चों के लिए, खिलौने नहीं सचमुच के सजीव प्राणी होते हैं, जिन्हें भूख लगती है, प्यास लगती है, जो रूठते हैं, हँसते हैं, रोते हैं, सोते हैं,  और प्यार भी करते हैं.

मैंने कहा, मनु मुझे और तितलियाँ चाहिए ! मनु ने मुझे देखा, मुस्कराया, और एक साथ कई तितलियाँ मेरी कुर्सी के हत्थे, उसके पैर, और उसके बगल में चिपका गया. मैंने कहा, ‘ वाह ! तुम कितने प्यारे हो. और ये तितलियाँ कितनी अच्छी हैं.’ उस दिन को गुजरे अरसा हो गया. मैं भी तितलियाँ भूल गया था, मनु के जाने के बाद से तितलियाँ मेरे घर का रास्ता जो भूल गयीं थीं !

आज अचानक तितलियाँ फिर मेरी चेतना में वापस आ गयी हैं. दीवाली में फर्नीचर की रंगाई-पुताई हो रही है. और कुर्सियों पर चिपके प्लास्टिक के  तितिलीयों को दिखाकर पेन्टर  ने पूछा, ‘ कुर्सी में रंग लगाने के पहले इन स्टिकर को हंटाना पड़ेगा.’

- कौन सा स्टिकर ? मैंने पूछा.

-प्लास्टिक की तितलियाँ.

मैंने कहा हरगिज नहीं ! यही तितलियाँ तो रोज मेरे बैठकखाने में रंग बिखेरतीं हैं, इन्ही तितलियों से तो गाहे-बगाहे मेरे जेहन में रौनक आती है  ! तितलियाँ जहां हैं, वहीं रहेंगी !! और अगले साल मनु जब वापस आएगा तो उसको, मुझे इन तितलियों की हिसाब जो देनी है . मैं तो रोज ये तितलियाँ उसे विडियो-काल पर दिखाता जो  हूँ !

मैथिलीकें जियाकय कोना राखब: समस्या आ समाधान

कीर्तिनाथक आत्मालापक पटल पर 100 म  लेख   मैथिलीकें जियाकय कोना राखब: समस्या आ समाधान  कीर्तिनाथ झा वैश्वीकरण आ इन्टर...

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