Tuesday, March 10, 2015

माताक अविष्मरणीय स्पर्श - क्रमशः पृष्ठ 2

एखनुक चलैत पांती सब हमर माताक  हमर स्मरणक कड़ी थिक .
 किन्तु , माता हमरा किएक मन पड़ैत छथि , जखन हम अपनहु वयसाहु भ चुकल छी. आब माता पिता दिवंगत भ चुकल छथि . हुनका लोकनिक कोनो मांग वा दवाब नहिं . जे किछु मंगलनि आ द'  नहिं सकलियनि , आब कतबो पछ्तायब द'  नहिं सकबनि . जे किछु नहिं मंगलनि , मुदा, अपना देबाक इच्छा छल से आब अपूरे रहत. आब से अनुभव भेले . आब बुझबामें आयले ,  माता -पिता- नेनाक सम्बन्धक विविध आयाम केहन  होइत छैक से तखने बूझि पडत जखन अपने माता-पिताक  भ' जाइ. पहिने किछु बुझबामें  नहिं अबैत  छैक . हयत , माता-पिताक ज्ञान, हुनका लोकनिक  शिक्षा आ परिवेशे धरि सीमित  छनि  . मुदा सत्य ई  छैक जे जीवनक  अनुभव माता-पिताकें शिक्षा आ परिवेशक परिधि  बहुत आगू , वृहत्तर संसारक दिव्य दृष्टिसं  संपोषित केने रहैत छनि. औपचारिक शिक्षाक अभाव मनुष्यक अनुभवक विस्तारकें बान्हि नहिं पबैत छैक . ततबे नहिं , माता-पिता जन्मसं कैशोर्य  धरि संतानक  प्रवृत्ति आ स्वभावक  प्रत्येक फलकक  तेहन अनावृत्त स्वरुप सं परिचित रहैत छथि,  जे संतानक अंतर में मुड़ियारि देबामे हुनका लोकनि कें  एको क्षण नहिं लगैत छनि .तें , आई लगैत अछि हमरा लोकनि  केहन  अमरुख  रही, आ माता-पिता हमरा लोकनिक अनेक व्यवहार पर मनहिं  मन कतेक  हंसैत छल हेताह वा  विस्मित होइत छल हेताह   !

Monday, March 9, 2015

माताक अविस्मरणीय स्पर्श

महाभारत क कथा में अभिमन्युक  प्रसंग में गर्भस्थ शिशुक अनुभवक कथा रहैक तं लोक कें हठे विश्वास नहिं होइक . आब आधुनिक विज्ञान कहैत छैक , गर्भस्थ शिशु आ माताक बीच मूक सम्प्रेषण चलैत रहैत छैक , तं लोक के विश्वास होमय  लगलैक अछि . मुदा , ई  दुनू  गप्प में भले जे सत्यता होइक हमरा लगइए  नेनपन में हम सुतले - सुतल माता सं बहुत किछु सिखने रही .
घरक  परिवार नंग-चंगमें माय -बाप कें भोरे उठय पड़इ छलैक आ हमरा लोकनि घसमोड़ने पड़ल रहैत छलहु . मुदा , भोरे- भोर जे श्लोक सब कान में पडैत छल से कहिया आ कोना अनायास कंठाग्र भ गेल से नहिं जानि . मुदा नेनपन में सुनल श्लोकसब एखनो तहिना स्मरण अछि जेना काल्हिये सिखने होइ :
           गंगा गीता गायित्री गोविन्द गरुड़ध्वजः
           गकारादिं स्मरेनित्यः ग्लानिस्तस्य न जायते
           लोलार्क केशवोकोटि नगरनन्धनुह
           कनर्लक्षः पुण्यात्मा  अहम् काशी गमिष्यामि
           तत्रैव निजसाम्यहम सप्तं काशीवास फलं लभेत . काशी , काशी , काशी ....
     
            जवाकुशुम संकासं काश्यपेयं महाद्युतिम
           तमोरिसर्व सर्व पापघ्नं प्रणतोसि दिवाकरम
आदि , आदि ..
फेर जाड़क भोर में सुरु होइ पराती .
 ' माधव आब न विलासक बेर .......
कहियो उठाबथि, ' उठो लाल आँखें खोलो , पानी लायी हूँ मुख धो लो '
नहिं जानि ओहि युग में हिन्दीक ई पद कतय सं सिखने रहथि . हँ , एतबा अवश्य जे घर में  बिहारी कविक ' बिहारी सतसई ' , मैथिली शरण गुप्त केर 'जयद्रथ बध' आ तुलसी आ चंदा झा रामायण तं अवश्ये रहैक .
पिता पंडित रहथिन . भाइ लोकनि पढ़ल लिखल; एक गोटे तं 'धौत पंडित' सेहो. तें , विद्याक संपर्क तं जन्मे सं रहबे करनि , धिया पुता अनुशासन सं रहय आ पढ़ि-लिखि आगू बढ़य तकर दुर्दांत आग्रह सेहो छलनि . इएह थिक  माताक , हमर आरंभिक स्मृति .

मैथिलीकें जियाकय कोना राखब: समस्या आ समाधान

कीर्तिनाथक आत्मालापक पटल पर 100 म  लेख   मैथिलीकें जियाकय कोना राखब: समस्या आ समाधान  कीर्तिनाथ झा वैश्वीकरण आ इन्टर...

हिन्दुस्तान का दिल देखो