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ओहि घटनाक
करीब दस वर्षसँ बेसी भए गेलैक. भगवानपुर
डेरा छोड़ि भवानी आ सतीश कतय गेलाह, तहिया ककरो कोनो भांज नहिं लगलैक. मनमोहन कें
इहो जिज्ञासा नहिं भेलनि जे अंतत श्रीपतिक की भेलनि. मुदा, न्यूयॉर्कक टाइम्स स्क्वायर में अकस्मात् दू
गोटेक मैथिली मे गप्प करैत सुनि मनमोहन पाछू घुमलाह तं आश्चर्यक ठेकान नहिं रहलनि,
अनेक वर्ष पहिनेक बिसरल ओ मर्मस्पर्शी कथा आँखिक सोझाँ ओहिना आबि गेलनि जेना ओतेक
दिन पहिने भेल रहैक.
भवानी आ सतीशक
कथा अजगुते रहैक. कथा तहियाक छियैक जहिया,
श्रीपति आ भवानी नौकरीक तलाशमें भगवानपुर आयल रहथि. हुनकर सबहक डेरा मखानाही
मोहल्ला मे रहनि. मखनाही मोहल्ला तहिया निर्जने जकां रहैक. ओतुका जाहि मकान मे
श्रीपति आ भवानी रहैत छलीह से सतीशेक परिवारक रहनि. मुदा, ताधरि सतीश गामहिं पढ़इत
रहथि. भवानीक पति, श्रीपति, सतीशक जेठ भाई, रतीश,क सार छलथिन. श्रीपति कें भगवानपुर
मे रहबाक अपन मकान नहिं रहनि. ओतय किरायाक हेतु नीक मकान उपलब्धो नहिं रहैक. तें, श्रीपतिक बहिनोइ, सतीशक जेठ भाई- रतीश, श्रीपति कें ओतय
रहबाले भगवानपुरक अपने खाली मकान द’ देने रहथिन.
छोट सन
कस्बा. पुरान ढहल ढनमनायल सन खपरैल घर, कतेक दिनसँ खालिए पड़ल रहैक. श्रीपति ओहि पर
रंग-रोगन आ पोचाड़ा करबओलनि आ रहए लगलाह. घरक आगू मे एकटा छोट सन खाली सेहो मैदान
रहैक जाहि में बरखा भेला पर जहाँ-तहां पानि भरि जाइक. मैदानक पूब उत्तर कोन पर
एकटा इनार रहैक. कनेक दूर पर एकटा सरही आम गाछ सेहो रहैक. आम रहैक सरही, मुदा, स्वाद
अपूर्व होइक. खूब मीठ आ कनेक धुमनाह. आम गुदगर नहिं रहैक. परंतु, आम मे खूब गढ़गर
रस होइक. अस्तु, ई आमक गाछ श्रीपति आ भवानीक पड़ोसिया भए गेल. आ से नीके बुझू. ई आमक
गाछ बियावान सन परिसरक शोभा रहैक. पोखरि-इनार,
आमक गाछ आ खुला मैदान, भवानी कें गामे सन लगनि. तथापि, निर्जनता काटय दौगनि. तें, जखन
श्रीपति नौकरीक तलाश मे जाथि वा पोस्ट ऑफिस- रेलवे स्टेशन जाथि तं असगरि भवानी पुबरिया
बरामदा पर बैसलि दूर पोखरिक मोहार परक ताड़क गाछक पतियानी आ ओहि पर लटकल, बसात मे डोलैत
चोंचाक अजस्र खोंताके देखैत रहथि. सोचथि, एतेक छोट-छोट पक्षी आ एतेक उंच खोंता. जखन
माए-बाप चरी ले खेत-खरिहान जाइत हेतैक तं बच्चा सब कतेक डेराइत हेतैक. सुनने
रहथिन, ताड़क गाछपर साँप धरि पहुंचि जाइत छैक. साँपसँ भवानी कें अपन गाम मन पड़ि
अबनि. गाम में सुनने रहथिन जे घर मे बैसल एसगरि माउगि निरीह चिड़ै थिक, आ आस पासक
पुरुष सब घासमें नुकायल साँप ! ई सोचिते भवानीक
देह सिहरि उठलनि. मुदा, फेर मन पड़थिन काली माई आ मनक भय विलीन भए जानि.मनहिं
मन सोचथि, कतय हम काली माई बनैत छी, आ कतय
साँपक नामहिसँ हमरा भय होइत अछि. ई सोचैत
भवानीक मुँह पर अनेरे मुसुकी छिटकि अबनि. तखन ओ अपन दृष्टि दूर आकाश मे उड़ैत चिड़ै
पर केन्द्रित करथि. आकाश मे उड़ैत चिड़ै कें देखि हुनका एकाएक नव ऊर्जाक अनुभूति होइनि.
होइनि, जेना आकाश मे उड़ैत ओ सब चिड़ै भवानी
अपनहिं होथि: मुक्त, स्वतंत्र !
एकटा नीक
संयोग भेलैक. किछुए दिनक पछाति, सतीश पढ़बाले गामसँ भगवानपुर अयलाह आ एही परिवारक
संग एक कोठली में रहय लगलाह. सतीशक भगवानपुर अयलाक किछुए दिनक बाद हुनक जेठ भाई
सतीशक खोज-खबरि लेल भगवानपुर आयल रहथिन. ओ
सतीशक रहबाक व्यवस्थासँ संतुष्ट भेलाह. सरहोजि, भवानी, कें कहलथिन, ‘अहाँ हिनक भोजन-सांजनक
व्यवस्था तं करिते छियनि, अहाँकें हिनक गार्जियनी
सेहो करय पड़त. ई पढ़बा लिखबा मे चुस्त छथि, मुदा, अपन देखभाल में कनेक सुस्त. जलखै-पनिपियाइ
कखनि करताह, ठेकान नहिं. वस्तु-जात सरियाकए राखब सेहो अहींसँ सिखए पड़तनि.’
भवानी कें
हँसी लागि गेलनि. पुछलथिन, ‘अहाँक जन्म कोन सालक अछि यौ, सतीश ?’
-‘चौबन इसवी.’
-‘आ हम बावनक
भ’ गेलहुँ तं गार्जियन भ’ गेलहुँ ?’
ओहि दिनुका
गप्प ओत्तहि समाप्त भए गेल रहैक. आ सतीश अपन काज में लागि गेल रहथि. सतीशक नज़रि
केवल अपन लक्ष्य पर रहनि. ओ एक भोर कालेज जाथि आ आपस आबि मुनहारि साँझ धरि पढ़बा मे
लागल रहथि. भगवानपुर मे बिजुली बिजलोताए जकाँ कखनो काल चमकि जाइत छलैक. बेसी विद्यार्थी
कें डिबिया-लालटेम में पढ़य पड़ैक. तें, बेसी गोटे दिन-देखार, समय पर अपन काज समाप्त
कए लैत छल. सतीशो सएह करथि.
मुदा, एसगरि
भवानीक दिन आ राति पहाड़ भए जानि. बैसि कए मलाहिन-कुजड़नी-खबासिनीसँ निरर्थक गप्प करब
आ अनकर खिधांश करब हुनकर स्वभाव नहिं रहनि. तखन,दू गोटेक भानस क कए भरि दिन कतेक कशीदा करितथि, कतेक टकुड़ी कटितथि. पढ़बा मे
रूचि छलनि, मुदा, सामग्री कतय पाबी. सतीशक भगवानपुर अयलाक पछातियो दिन भरि जखन सतीश
कालेज जाथि, भवानी एसगरिए रहथि. कारण, नौकरी भेटलाक पछाति श्रीपति मलेरिया उन्मूलन कार्यकर्त्ताक
रूपमे कुशेश्वरस्थान मे पदस्थापित भेल छलाह. तहिया कुशेश्वरस्थान आ भगवानपुरक बाट,
दूरसँ बेसी दुर्गम रहैक. नीक पक्की सड़कक
कोन कथा. कच्ची सड़क, सेहो कोन सड़क कहिया भासि जायत, कोनो ठेकान नहिं. कमलाक धार असल
में कुशेश्वरस्थान लग नहिं, बुझू कुशेश्वरस्थान भइए कए बहैत छल. बाढ़ि आयल तं
आरि-धूर-बाट, खेत-खरिहान, गाछी-बिरछी, जे किछु बाट मे आयल, नाश भए गेल. अगिला साल
फेरसँ सड़क मरम्मतक नाटक होअय. मुदा, यातायात
जस के तस रहैक. लोग साले-साले कहुना घर ठाढ़ करय, आ दिन काटय. मुदा, एहि इलाकाक सरकारी
मोलाजिम ले कुशेश्वरस्थानक पोस्टिंग बतर
कालापानी छल. ओतय माछ, माखनक कोनो कमी नहिं. शिकारक प्रेमी ले सिल्ली, बटेर, दिघोंच, जे चाही लए आनू. मुदा, ओतयसँ
निकलबाक बाट आ सवारी भेटत तखन ने. बरसातक छौ मास तं बुझू बाट बन्ने. भगवान
आंग-स्वांगसँ बंचाबथि ! श्रीपति तं शनि-रविक कोन कथा, पाबनिओ-तिहार में यात्राक
असुविधाक कारण भगवानपुर अयबासँ हारि मानि लेथि.
अपना श्रीपति के माछ-मखानक खूब रूचि रहनि. असुविधाक पर्यन्तो कहियो काल ओ भवानी ले
सिल्ली सेहो लए आनथि. सतीशो कें सेहो सिल्लीक मासु बड़ पसिन्न रहनि. तें, श्रीपति जखन
सिल्ली आनथि हुनका अपना कोनो श्रम नहिं करए पड़नि. मुदा, कुशेश्वरस्थानसँ भगवानपुर आयबे बड़ कठिन रहैक.
एक
साँझुक गप्प थिक. सतीश लालटेमक इजोत मे किताब दिस नजरि गडौने, पढ़बा में ध्यानमग्न
रहथि. हुनका पढ़इत देखि, भवानी पयर मारि अइलीह आ चौकीक एक कोन पर बैसि गेलीह. किछु
कालक पछाति सतीशक ध्यान
भंग भेलनि. ओ नज़रि उठौलनि तं भवानी कें चौकीक कोन पर बैसल देखि हुनका मुसुकी छूटि
गेलनि. पुछलखिन, ‘कहू. बाज़ारसँ किछु अनबाक छैक, आनि दियअ ?’
-‘नहिं, अहिना
असगरिए टौआइत रही. आबि कए एत्तहि, अहीं लग आबि बैसि गेलहुँ. अंय, औ सतीश, एकटा गप्प पुछैत छी, हम
आगाँ नहिं पढ़ि सकबैक ?’
-‘किएक नहिं.
अहाँ मैट्रिक पास छी. समय अछि. अहाँ कहैत छलहुँ, अहाँक बाबू अहाँकें बुधियारि सेहो
कहैत छलाह. कालेज में नाम तं लिखिए लेत.’
-‘आ चूल्हि
के फुकतैक. सबसँ पहिने तं अहीँक भोजन बन्न भ’ जायत !’
-‘तकर कोनो
गप्प नहिं. सब, सब दिन थोड़े कालेज जाइत छैक. आ लोक तं प्राइवेटहुसँ पढ़िते अछि. एतय
तं कतेक विद्यार्थी अपनहिं हाथें भानस-भात सेहो करैत छथि आ पढ़ितो छथि. हमरा ने
सुविधा अछि.’
-‘हमरा के
पढ़ाओत,यौ ? जनिका पुछबनि, एके जवाब : की
लाभ ? मुदा, हमरा बड़ सेहन्ता होइत अछि, हमहू पढ़ितहुँ. हमहूँ स्कूलक धिया-पुता कें
पढ़बितिऐक. असल में पढ़बा मे मोन सेहो लगै अछि. कहू तं, लोक केवल मन लगबाक कारण जं
पढ़तैक तं कोनो दोष छैक ! एतय तं लोक हाथ में तराजू ल कय सब किछु मे हानि-लाभ तौलबा
ले बैसल रहैए. अंए, औ हम अहाँक संग नहिं पढ़ि सकैत छी ?’
-‘पढ़ू ने. पोथी
मंगबए पड़त. अपनहुँ तं लोक पढ़िते अछि.’
-‘आ जे बुझबा
मे नहिं आयल से अहाँ नहिं बुझा देब ?’ भवानी विह्वल जकाँ होइत पुछलखिन.
सतीश सोझ
उत्तर बिना देनहिं कहलथिन, ‘अहाँकें तं एखन फ़ुरसतिए फ़ुरसति अछि. श्रीपति बाबूसँ
पूछि कालेज में नाम लिखयबा में कोन हर्ज़. हमरा जखन समय रहत, तखन पर हमहूँ सहायता कइए
देब.’
सतीशक सुझाव
पर भवानी गुम्म भए गेलीह आ मनहिं मन श्रीपतिक अगिला छुट्टीक बाट ताकय लगलीह.
किछुए
दिन पछाति, एक सांझ, ओहिना सतीश
लालटेमक इजोत मे पढ़इत रहथि. भवानी बाहरक
ओसारा पर हुनके चौकीक एक कोन पर बैसल सतीशकें देखैत रहथिन. श्रीपति बससँ उतरल हकासल-पियासल
डेरा आयल रहथि. एकाएक श्रीपति कें आयल देखि भवानी धड़फड़ा कए उठलीह आ एक लोटा पानि आनि
ओसाराक कगनी पर रखैत कहलखिन, ‘पयर धो लियअ. चाह नेने आउ ?’
‘कनेक थम्हि
जाउ.’ कहैत कान्ह परक गमछा ल कए श्रीपति माथक पसेना पोछय लगलाह. पसेना पोछि गमछा
कें चौकी पर एक कात राखि देलखिन आ स्वगत बाजय लगलाह: ‘हद्द भए गेल. इमरजेंसी आ
सरकारक जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रम जे ने कराबय. बाटे-घाटे लोकसबकें पकड़ि- पकड़ि
नसबंदी कए दैत छैक. सा......र सब.’ श्रीपतिक
मुँहसँ गारि बहरा गेलनि. भवानीकें लगलनि, जेना श्रीपति बड्ड तमसायल होथिन; तामसक
अतिसँ साँझुक अन्हार मे श्रीपतिक पिण्डश्याम
वर्ण भवानी कें कारी झाम सन बूझि पड़लनि.
भवानी श्रीपति
कें पंखी हौंकैत कहलखिन, ‘तं, की करबैक. मुदा, एहना स्थिति में लोकक सखा-सन्तान
कोना हेतैक ! लोक-वेद कें की हेतैक, यौ ?’
-‘जानथि
भगवान ! कुन्ती कें कोना सन्तान भेल रहनि !!’ आ ई कहैत श्रीपति भभाकए हँसय लगलाह.
मुदा, बाटें-घाटे जबरदस्ती नसबंदीक गप्पक आश्चर्य आ श्रीपतिक अद्भुत् गप्पसँ भवानी
ओहि दिन अवाक् भए गेल रहथि. सरिपहुं, ओहि साँझुक श्रीपतिक गप्प भवानीक माथ पर ठनका
जकाँ खसल रहनि. मुदा, माउगि कें चुप रहि बहुतो गप्प सुनय पड़ैत छैक, से भवानी माए-पितियाइनिक
मुँहसँ कतेक बेर सुनने रहथि. कहलखिन, ‘बैसू चाह भए गेल हेतैक. हम नेने अबैत छी.’ आ
भवानी भीतर चलि गेलीह. मुदा, इमरजेंसीक ई विचित्र पराभव हुनके भोगय पड़तनि, से भवानी कें
अनुमान नहिं रहनि.
पछाति,एक दिन
जखन श्रीपति भगवानपुरसँ आयल रहथि, एक साँझ दुनू गोटे चाहक कप ल’ कए ओसारा पर बैसि, ओलती
मे पयर लटकौने, मौसमक आनंद लैत रहथि. भवानी समय देखि कहलखिन, ‘एकटा गप्प बुझलहुँ ?’
-की ?
-‘सतीश कें
देखि कय हमरो पढ़बाक मन होइत अछि. अहाँ नहिं रहैत छी तं समयो काटब मुश्किले रहैत
अछि. जं कालेज में नाम लिखा गेल तं अनमना रहत. सतीश सेहो कहैत छथि, अवसर पड़ला पर
सहायता कइए देताह.’
श्रीपति लाड़
करैत कहलखिन, ‘बड़ बेस. मुदा, अहाँ तं
ओहिना एतेक बुधियारि छी. एतेक पढ़िकय करबैक की ?’
‘फेर केलहुँ ने अनपढ़वला गप्प !’ भवानीक मुँहसँ अकस्मात्
बहरा गेलनि. कहलखिन, ‘अऍ यौ, पढ़बा ले सेहो कारण चाहियैक ! हम मास्टर बनबैक ! प्रोफ़ेसर
बनबैक !! अहाँकें कोनो आपत्ति ? टाका तं घरहि मे ने आओत, घरहिं खर्च हेतैक. मालिक
तं पुरुखे थिकाह.’ कहि भवानी मुसुकाए लगलीह आ आगू कहलखिन, ‘धीया-पढ़त से मुफ्त में !!’
श्रीपति हँसय
लगलाह. कहलखिन, ‘हमरा कोनो उजुर नहिं. दरखाश्त दिऔक. खर्च हम देबैक.’
भवानी सोझे उठि कय ठाढ़ भए गेलीह. दूरेसँ हाक देलखिन, ‘सुने छी, यौ सतीश ? हमहूँ पढ़बैक.’ आ ओ सोझे भीतर गेलीह आ हाथ में एकटा सराई में दू टा लड्डू लेनहिं घरसँ बहरइलीह, आ श्रीपति कें कहलखिन, ‘ई अहीं अनने रही, तें, एहि खुशनामाक पहिल लड्डू अहीं कें.’ श्रीपति चाहक कप एक कात कए देलखिन आ दाहिना हाथसँ एकटा लड्डू फोड़ि एक टुकड़ी मुँह में दैत कहलखिन, ‘लियअ एक टुकड़ी अहूँ खाउ.’ भवानी लड्डूक टुकड़ी श्रीपतिक हाथसँ ल’ लेलनि. पछाति, सतीश जुमलाह, तं, खुशनामाक लड्डू ओहो खयलनि.
2
भवानी स्वभावसँ
पंछी जकाँ स्वतंत्र आ मनसँ निश्छल रहथि. विशाल
नील आकाश, शीतल पुरिबा बसात, आमक गाछी-कलमक छाया आ कमला कातक हरियरी भवानीक मन
मोहि लैत छलनि. जखन कुमारि रहथि, जखन-जखन तेज पुरिबा बहैक तं ओ अपन केश खोलि सोझे
बसातक विपरीत दिशामें दौड़ि आबथि. सखी-बहिनपा हँसथिन आ कहथिन, ‘है, कोना करैत छह !’
मुदा, भवानी भभाकए हँसथि आ कहथिन, ‘तोहों
सब चलह ने. केश खोलि कए पुरिबा दिस दौगलासँ केशक जड़ि- जड़ि मे जाइत बसातसँ देहक पोर-पोरमे फुर्ती आबि जाइत छैक. देखैत
नहिं छहक, कालीमाताक केश कोना खूजल रहैत छनि.’
‘बाप रे, बाप
! कालीमाता ?’ लोककें कतेक भय होइत छैक !
‘धुर ! भय आ काली
मातासँ !! ओ तं माता छथिन. हुनकासँ भय तं राक्षसकें होउक. हमर अगोंट नहिं देखैत छह.
हमर बाबू हमरा दुलारसँ श्यामा कहैत छथि. हमरो अंगोट तं कालीए माई जकां अछि. मुदा,
माए भवानी कहैत छथि. ओ अपन बेटीकें कारी किएक कहथिन ! आ हमरा कहए केओ तं कारी ?
काली जे छिऐक !!’
एहने रहथि भवानी:
निधोख, मुँहफट्ट, निर्भीक, मुदा, सरल आ सहृदय. दोस्ती तं हुनका ककरहुँसँ भ’ जाइनि. तखन सतीश कोन कथा. मुदा,
जखन भवानीक नाम कालेज में नाम लिखल भइओ गेलनि, तइओ किछु दिन धरि ओ डेरहिं पर पढ़थि.
पछाति सतीश कें रोज बहराइत देखि अपनो उत्सुकता भेलनि. भेलनि जे कालेज जायब तं नव
अनुभव हएत. देखियैक. दिन काटब सेहो पहाड़ नहिं हयत. पछाति जं प्रति दिन जायब नहिं
पार लागल, तं देखल जेतैक. आ भवानी प्रति दिन सतीशहिं संग कालेज जाए लगलीह.
सतीश स्वभावसँ
कनेक लजकोटर, मुदा, सहमिलू रहथि. अपना वयसक कन्या लोकनिसँ मेलजोलक अनुभव नहिं रहनि. ऊपरसँ पढ़बाक धुनि. मुदा, प्रतिदिनक संगबे आ आन कोनो
संगबेक अभाव दुनू गोटेक बीच परिचयकें क्रमशः मित्रता में बदलए लगलनि. पुरुखक संग एहन
मित्रताक अनुभव भवानी कें कहियो नहिं भेल रहनि. सतीश सेहो अपना भरि भवानीक सहायता
में कोनो कोर कसरि नहिं रहय देथिन. मुदा, हुनका अपन लक्ष्य रहनि. से ओ कहियो नहिं
बिसरथि. मुदा, बितैत समय आ दिन-प्रतिदिनक
संगबे सतीश आ भवानीक परिचय बढ़ौलक. क्रमशः एक दोसराक स्वभाव आ
व्यक्तित्वक खोल परत-दर-परत खुजैत चल गेल. ई दुनू गोटेक हेतु सुखद अनुभव छलनि.तथापि,
सतीशक दिससँ एखनहुँ औपचारिकताक देबाल आ
दूरी ओहिना छल. कखनो काल ई औपचारिकता भवानीकें
छाती पर जांत जकां बूझि पड़नि. कहथिन, ‘यौ सतीश अहाँ हरदम मूड़ी गाड़ने किएक गप्प
करैत छी. हमरासँ भय होइछ ?’ एहि पर सतीश
कें मुसुकी छूटि जाइनि. भवानी आओर खोंचाड़थिन: ‘हम बंगालिन छियैक ? आँखिएसँ जादू कए
दैत छियैक ?’
सत्यमें
भवानीक पिण्डश्याम वर्ण, घनगर कारी केश, गाढ़ कारी आँखि आ संतुलित देह-यष्टि में
किछु चुम्बकीय छलैक तं अवश्य जे केवल देखनिहारे टा कें बूझि पड़ैक. एकर अनुभव सतीश
कें कहियो नहिं भेल रहनि, से नहिं. किन्तु, ओ माए-बापसँ निरंतर सुनथि, ‘बौआ, आदर्श
विद्यार्थीक हेतु कहबी छैक, ‘काग चेष्टा
बको ध्यानः श्वान निद्रा तथैव च, अल्पाहारी गृहत्यागी विद्यार्थी पंचलक्षणः’. सतीश
एकरा गेठरी बान्हि कए रखने रहथि. मुदा, एकटा अप्रत्याशित परिस्थिति
सब किछु बदलि देलक; एकटा पुरुष आ एकटा नारिक संगबे आ तेसर व्यक्तिक स्वार्थ परिस्थितिके
तेना बदलैत चल गेल, जे सतीशक संकल्प, संकल्पे
रहि गेलनि.
3
इंदिरा
गांधीक सरकार द्वारा घोषित राष्ट्रीय इमरजेंसीक बज्र बहुतो पर खसल रहैक. केओ जहल
गेल, केओ लाठी खेलक, आ ककरो बलपूर्वक नसबंदी भए गेलैक. श्रीपति, जनिका एखन धरि
सखा-संतान हएब बांकीए रहनि, अकस्मात् बलपूर्वक नसबंदी शिकार भए गेल रहथि. ई भवानी
आ श्रीपति दुनू बुझैत रहथि. मुदा, भवानी एकरा एकटा दारुण दुर्घटना बूझि स्वीकार कए
लेने रहथि. हुनक पारंपरिक संस्कार अक्षुण रहनि. ततबे नहिं, धिया-पुता नहिं भेने
लोक बाँझ कहत, वा से सामाजिक दोष थिकैक हुनका तकरो बोध नहिं रहनि. मुदा, श्रीपतिक संग
जे त्रासदी भेल रहनि ताहिसँ सबसँ बेसी
हुनक पुरुषार्थ पर ठेस पड़ैत रहनि. जं एहन दुर्घटना आइ भेल रहितैक तं बहुत उपाय
होइतैक. मुदा, तहियाक मुफस्सिल इलाका आ लोक लाजक बहुतो बाध्यता रहैक. असल में जखन किछु
वर्ष धरि भवानी आ श्री पति कें कोनो संतान नहिं भेलनि तं श्रीपतिक परिवार दिससँ
श्रीपति पर दोसर विवाहक करबाक दवाब पड़य
लागल रहनि. भवानीकें श्रीपति से कहने रहथिन. भीतरे भीतर श्रीपति, सतीश आ भवानीक अनायास सहयोगसँ एहि समस्याक समाधान अवश्य देखैत
रहथि. मुदा, स्वार्थक अछैतो एहन गप्प कोन पुरुषक मुँहसँ बहरयतैक.
भवानी
स्वभावसँ निर्भीक रहथि. तथापि, भवानी देखथिन जे सतीश आ भवानीक बीच बढ़इत मित्रतासँ श्रीपतिक के कोनो आपत्ति किएक हेतनि, लगनि जे हुनकर ध्यानहु ओम्हर जाइतो नहिं जाइत
छलनि. सत्यतः, पछाति भवानी कें ई बुझबामें
कनिओ संदेह नहिं रहलनि जे श्रीपतिक सतीश आ भवानीक बीचक मित्रताकें सम्बन्ध में
परिवर्तित करबाक हेतु आतुर छलाह. भवानी कें लगनि जे अपन स्वार्थ में श्रीपति सब
लाज-धाख घोरि कए पीबि गेल रहथि. तथापि, श्रीपतिक मनें साँपो मरि जाय आ लाठीओ ने
टूटय. मुदा,नारिक संस्कार संस्कार थिकैक. नारीक संकल्प में बज्र सन कठोरता आ आकस्मिकता
सेहो होइछ, जे कदाचित् अवसर अयला पर प्रकट होइछ. ई सब सोचैत, भवानी कें अपन बाबू
मन पड़ैत रहथिन. कहथिन, ‘है, राक्षस सबसँ हारल देवता लोकनिक उद्धार तं भगवती दुर्गा
कयने रहथिन. ई कोनो कथा मात्र नहिं थिकैक. तें, नारि कें पुरुखक बैसाखीक सहारा नहिं
चाहियैक. आश्चर्य अछि, सब ठाम नारि अबला जकां मारि-गारि किएक सहैत अछि !’ कान में बाबूक
स्वर भवानीकें ऊर्जासँ भरि दैत छलनि. सोचथि, ‘पुरुष जेहन हो, मुदा, नारि सदानीरा
थिक. हमर आत्मबल हमरा सत्य-असत्यक भेद में सहायक हएत !!’
4
भवानीक नाम कालेज में लिखल भए गेल रहनि. ओ पढ़य लगलीह. मुदा,
हुनक पढ़ब, हुनक अपन दायित्व रहनि. अपन मनोरथ, अपन प्रेरणा, आ अपने श्रम. हुनक सफलता आ असफलता अनका
ले कोनो अर्थ नहिं रखैत छलैक. तें, सतीश आ भवानीक अपन-अपन दुनियाँ रहनि. अपन-अपन
लक्ष्य रहनि. सतीश आ भवानी, दुनूक हेतु सफलताक अर्थ भिन्न-भिन्न रहनि. सतीशक सफलताक
हेतु जहाँ धरि संभव छलनि, भवानी सहायता करबे करथिन. सतीशकें कोनो बाधा नहिं होइनि,
सेहो हुनक प्रयास में रहनि. मुदा, मौका देखि भवानी अपन शंका-समाधान ले सतीशक सहायता
लेथि. एक दिन सतीश कहलथिन, अहाँ जे हमरासँ शंका पुछबा ले अबैत छी, आ चल जाइत छी,
फेर अबैत छी, फेर जाइत छी, से चाही तं एतहु हमरा लग बैसि पढ़ि सकैत छी. हमरा कोनो
आपत्ति नहिं.’
भवानी सतीशक एहि प्रस्ताव पर कनेक गुम्म भए गेलीह. कहलखिन, असल
में हम पढ़ितो रहैत छी, आ भानसो करैत छी. आश्रमक आनो हुच्ची-फुच्ची रहैत अछि. आ
एकटा सत्य गप्प कहू ,यौ सतीश ?
-की ?
-‘अहाँक संग-संग पढ़ने हमरा तं लाभ अवश्य हयत. मुदा, परिवारक
नजरि में ओ निरर्थक थिक. किन्तु, एहि डेरा पर रहि अहाँक पढ़ाई में जं कनेको बाधा
भेल तं लोक दोष हमरे देत. श्रीपति बाबूक तं केओ नामो नहिं लेतनि.’
सतीश एहि पर ओहि दिन जहिना मूड़ी गाड़ने पढ़इत रहथि, ओहिना पढ़इत
रहि गेलाह. किन्तु, ई कहब असत्य हएत जे संग पढ़बाक प्रस्ताव पर भवानी मन में एकटा
सुखद संवेदनाक अनुभूति नहिं भेलनि. सुन्दर-सुदर्शन युवक. तेजस्वी आ पढ़बा पर
केन्द्रित. ताहू में ओ सरि भ कए भवानीक दिस मुड़ी उठाइओ कए नहिं देखथिन. भवानीक वयसे
की रहनि; सतीशक समवयस्के छलीह. मोहल्ला एकाकी रहैक. श्रीपति पावनिए-तिहार में आबि
पबथिन. सेहो, जं समय रुख-सुख रहलैक. एहना परिस्थिति में सबसँ लगक मनुखक संगतिक
सेहन्ता अनुचित नहिं छलैक. ऊपरसँ भवानी कें बूझि पड़नि जे सतीश हुनका दिससँ सर्वथा उदासीन छथि. भवानीक प्रति सतीशक एहि
उदासीन व्यवहारसँ कोना-ने-कोना क्रमशः
भवानीक भीतरे-भीतर सतीशक प्रति आकर्षणक अनुभव करय लागल रहथि. मुदा, ई भावना बहुत
दिन धरि भवानीक मनक भीतरहिं नुकायल रहल. मुदा, सतीशक प्रति आकर्षण पछाति भवानीकें
सतीश दिस झिकय लागल रहनि. फलतः, पहिने कहियो काल, पछाति नियमतः ओ सतीशे लग बैसि पढ़य
लगलीह. तथापि, किछु दिन धरि तं सतीश जहिना रहथि, तहिना रहलाह. मुदा, पछाति जहिया ओ
भवानी कें अपना लग नहिं देखथिन तं हुनको एकटा शून्यताक बोध होइनि. सतीश तकरा भले
प्रकट नहिं करथि, मुदा, भवानी कें होइनि जे सतीश हिनकहिं बाट तकैत छथिन. भवानीक
हेतु ई सुखद अनुभव छल.
संयोगसँ एक दिन सतीश
कें एकाएक ज्वर भए गेलनि. किछु दिन तं ओ ओकरा मोजर नहिं केलखिन. मुदा, पछाति डाक्टरसँ
सलाह लेलनि. इलाज भेलनि. मुदा हुनक स्वस्थ हेबा में दस-पन्द्रह दिन लागि गेलनि. एहि
अवधि में भवानी हुनक पथ्य-परहेजक हेतु हरदम तत्पर रहथि.
ज्वर उतरलाक पछाति एक दिन सतीश बिछाओन पर पड़ल छलाह. भवानी
ओतहि आबि बिछाओनक एक कात बैसल छलीह. सतीश
कहलखिन, ‘ अहाँकें हमरा हेतु बड्ड तरद्दुद भेल. अहाँ तं हमरा हेतु नर्सहु सं बेसी
भए गेलहुँ.’ सतीशक गप्पसँ भवानी के आँखि में नोर आबि गेलनि. कहलथिन, ‘ अहाँ सन जड़सँ
एहने गप्पक आशा छल. अहाँक मन मरुभूमि थिक. मनुख के अहाँ मनुख बूझैत छिऐक ! हम तं
अहाँकें मित्र आ सहपाठी बूझैत रही. आ अहाँ हमरा नर्स बूझि लेल. नारिक मन बूझब पुरुषक
बस नहिं.’
सतीश कें अपन कहल पर पछताबक होमए लगलनि. हुनका अक्क ने बक्क
फुरलनि. कहलखिन, ‘हम अहाँक ओतय रहि कए पढ़इत छी. अनुशासन में छी, किछु अपन आ किछु अनकर.
कहू हमरासँ कोन घटी भेल ?’
भवानी कहलखिन, ‘ अनुशासन तं बूझल, मुदा, अहाँकें मनुष्यतो
अछि ? हम मासक मास एसगरि रहैत छी. मनुखक संगति तकैत छी. मुदा, हमरा अपना लग इंटा-पाथर,
गाछ-वृक्ष, आ चौखटि-केबाड़क अतिरिक्त आओर कहाँ किछु देखबा में अबैछ. होइत छल, एतय
हमरा अतिरिक्त एकटा मनुखो रहैत अछि. मुदा, से हमर भ्रम छल. अहाँ पाथर छी !’
सतीश भवानीक एहि गप्प पर स्तब्ध भए गेलाह. एहन आकस्मिकता
हुनक हेतु अप्रत्याशित छलनि. आकस्मिकताक एहने क्षण में ओ भवानीक लग आबि हुनकर हाथ पकड़ि,
हुनक नोर पोछि देलखिन. कहलखिन, ‘अहाँक
मुँहसँ एहन गप्प नीक नहिं लागल.’
भवानी कहलखिन, ‘ आ हमरा ? अहाँ जहियासँ एतय एलहुं-ए हमरा
लागल जे हम एतय एहि अकाबोन में एसगर नहिं
छी. अहाँक संगति हमर एकाकी जीवन कें सार्थक कए देने छल. श्रीपति व्यस्त छथि. अहाँ
अपने व्यस्त छी. तखन हमर काज कोन ? घर देखू, भोजन बनाउ, आ बिछाओन पर पड़ल चार कें
देखैत रहू. अहाँकें पढ़इत देखि पढ़बाक मनोरथ भेल. अहाँक संग कालेज जाय लगलहुँ, तं,
भविष्यक अनेक सपना मन में आबय लागल. मुदा, अहाँ कें कहियो एहन भेल जे हम-अहाँ
संग-संग रहितो छी. हम-अहाँ एक संग रहितहुँ ?’
‘ ई सब जुनि पुछू. उद्वेगक पाछू जं मनुष्य भागए लागए तं
उद्देश्य बाटहिं रहि जेतैक.’ सतीश कहलखिन.
‘मुदा, हमरा कठिन बाटमें कनिओ कालक सुखद अनुभवकें मुट्ठी
में पकड़बाक हिस्सक अछि. मुदा, अहाँ से नहिं बुझबैक !’ कहि भवानी हाथ छोड़बैत भीतर
जाय लगलीह. मुदा, ओही क्षण सतीश हुनका अपना दिस घिचैत छाती में सटा लेलखिन आ हुनक ठोर
पर अपन दुनू ठोर दए, भवानीकें ओत्तहि तेना शिथिल कए देलखिन, जे हुनका एकाएक भेलनि
जे ओ सब बंधनसँ मुक्त भए रहल छथि, ओ
क्रमशः आ अपन मुँहके सतीश छाती में नुकबैत चल गेलीह. ओकरा पछाति भवानीक चेतनाक की
भेलनि, हुनक मोन नहिं रहलनि. अन्ततः, जखन भवानीक
निन्न टुटलनि तं देखलखिन चारू कात सोनहुल रौद पसरि आयल रहैक. सतीश बाहर
ओसरा पर भोरुका रौद में सब दिन जकां पढ़ि रहल छलाह. सत्यतः, भगवानपुर परिसर में
भवानी कें रौद एतेक सोहनगर कहियो नहिं बूझि पड़ल रहनि. ततबे नहिं, ओहि दिनुक
आकस्मिक घटना भवानी आ सतीशक संबंधके एकटा नव आयाम दए देलक. ओकर असरि एतबे भेल जे ओ
लोकनि नित्य संग-संग पढ़य लगलाह. संगहिं, दुनूक संबंध आब वास्तविकताक धरातल आ
आवश्यकताक अनुशासनक रितिएँ बढ़य लागल. भवानी मुक्त छलीह.
5
अगिला मास श्रीपतिकें एक हफ्ताक छुट्टी भेलनि. ओ अकस्मात्
भगवानपुर अयलाह. बस अबैत-अबैत हुनका साँझुक दससँ ऊपर भए गेल रहनि. भवानी आ सतीश ओहो दिन एकहि ठाम
पढ़इत रहथि. सतीशकें पढ़बाक पाहि लगबामे देरी भए रहल छलनि. मुदा, भवानी नित्य प्रति
जकाँ संगहिं खाए चाहैत छलीह. मुदा, हुनका दिनुका थकान में आँखि लागि गेलनि, आ ओ
ओतहि सतीशक बिछाओने पर निभेर निन्न भए गेल रहथि. अकस्मात् श्रीपति जखन डेरा अयलाह,
तं भवानी कें सतीशेक बिछाओन पर सूतल देखलथिन. श्रीपतिक एना आयबसँ सतीश हतप्रभ भए
गेलाह. कहलखिन, ‘एखने तं पढ़इत छलीह. हमरा देरी भेल तं हिनका दिनुका थकान में निन्न
आबि गेलनि.’
सतीशक गप्प पर बिना किछु ध्यान देने श्रीपति भवानी कें
दुलारसँ उठौलखिन. श्रीपति कें देखि भवानी धड़फड़ा कए उठलीह. हुनक देह सुन्न होमए लगलनि,
‘कहलखिन की कहू, हमर निन्न पहाड़ अछि. सतीशक पढ़बा में किछु देरी की भेलनि, हमरा कखनि
निन्न भए गेल बुझबो ने केलिऐक. स्वाइत कुमारि में हमर नाम लोक असेढ़ रखने छल. ओ तं
अहाँ छलहुँ, नहिं तं लोक की कहैत ? कहू तं.’ कहैत भवानी कठहँसी हँसए लगलीह.
‘की कहैत ? अहाँ सतीशहुँक सरहोजिए जकां छियनि ने. लोक कें हँसी
करबाक अधिकार तं छैहे, मुदा, एहन घटना जकरा सामान्य परिस्थिति में परिवार कें तोड़ि कए राखि देबाक संभावना रहैक,
केर श्रीपति पर कोनो असरि नहिं भेलनि. ओ खुशी-खुशी छुट्टी बिताकए कुशेश्वरस्थान
वापस भए गेलाह.
अस्तु, आब भवानी आ सतीशक संबंधक नारि-पुरुषक संबंधक परिणति
दिस अग्रसर भेल; किछुए दिन में भवानी कें संतान होनिहारी भए गेलनि. श्रीपति खूब
प्रसन्न भेलाह. हुनक प्रसन्नताक कोनो सीमा नहिं छल, जखन भवानीकें पहिल बेटा भेलनि.
श्रीपतिक माए कें छठिहार नहिं धारैत रहनि.तें,
छठिहार में बच्चाक पैत्रिकसँ केओ नहिं एलनि.
मुदा, भवानीक माए जे बच्चाक जन्मक हेतु आयल रहथिन रहि गेलीह. छठिहार में श्रीपति, भवानी,
सतीश आ श्रीपतिक सासुक अतिरिक्त केवल एक दू गोटे आओर आयल रहथिन. मुदा, बहुत धूमधामक
अभावक अछैतो, परिवार अत्यंत प्रसन्न छल. एहिसँ भवानीकें भेलनि जे हुनक छाती पर नौ माससँ
पड़ल जांत एकाएक उतरि गेलनिए. श्रीपति अपना
दिससँ सासु कें छौ मास धरि रहि बच्चा-जच्चाक सुश्रूषाक अनुरोध केलखिन. सासु मानि
गेलखिन आ श्रीपति निश्चिंत भए कुशेश्वर गेलाह.
मुदा, ई कथाक समाप्ति
नहिं छल. दू वर्ष भरिक भीतरे भवानीकें एकटा बेटी सेहो भेलनि. कन्या सेहो भगवतीए जकां सुन्नरि छलि. एहि कन्याक जन्म श्रीपतिक हर्ष कें दूना कए देने
छल. मुदा, कन्याक जन्मक करीब दूइए वर्षक भीतर एकटा छोट घटना परिवार में बिहाड़ि आनि
देलक. भेलैक एना जे एक दिन एकटा बहता योगी हिनका लोकनिक भगवानपुर डेरा पर आयल. श्रीपतिओ
ओहि दिन भगवानपुरहिं रहथि. साधु कहलखिन जे ओ हस्तसामुद्रिक में सिद्धहस्त छथि.
भवानी, सतीश आ साधु सब बाहरक ओसारा पर बैसल छलाह. भवानीक दुनू बच्चा सेहो खेलाइत- खेलाइत
ओतय जूमि गेल छल. एही बीच श्रीपति एकाएक अपन दाहिना हाथ साधुक आगाँ पसारि देलखिन आ
कहलखिन,’ बाबा, किछु कहू’. साधु किछु काल धरि हाथकें उनटा-पुनटा कए देखि गुम्म भए
गेल. साधुकें गुम्म देखि श्रीपति पुछलखिन, ‘की बाबा ? गुम्म किएक भए गेलहुँ ?’
साधु मौन तोडैत कहलथिन, ‘अशुभ गप्प कहबा मे प्रमाद होइत
अछि. मुदा, पुछलहुँ तं कहहि पड़त.’
‘तखन कहिए दिअए.’- श्रीपति हंसैत कहलखिन.
‘ अहाँ कें सन्तानक योग नहिं अछि.’
सतीशकें जेना अभिजंक भए गेलनि. मुदा, साधु हुनक दिससँ ध्यान
हंटा, दुनू नेना दिस इंगित कए, सतीशकें लक्ष्य
करैत कहलखिन, अहाँक दुनू नेना ठोकल अहीं सन अछि.’
साधु एहि गप्प पर श्रीपतिक देह में जेना कबाछु लागि गेलनि आ
ओ चोट्टे ओतयसँ उठि, दुनू नेनाक डेन पकड़ने
भीतर चल गेलाह. हुनका भेलनि जे क्रोधसँ हुनक ब्रह्माण्ड फाटि जेतनि. ओ भीतरेसँ साधुकें
चल जेबाक हेतु कहि, भवानी कें अंदर बजा लेलखिन.
दोसर दिन कुशेश्वरस्थान जयबा काल ओ भवानीकें कहैत गेलखिन, जे
हुनक अगिला बेर भगवानपुर अयबासँ पहिने सतीश डेरा छोड़ि देथि.
भवानी एहि पर अवाक् भए गेलीह. हालहिं सतीशक एम. ए. क रिजल्ट
बहरायल रहनि. ओ दिल्लीक जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में एम. फिल. क हेतु नाम लिखयबाक
तैयारी में लागल रहथि. भवानीक बी ए क परीक्षा समाप्त भए गेल रहनि. रिजल्ट आयब बांकी
रहनि. एहन परिस्थिति में श्रीपतिक एकाएक अठाबज्जर खसायब अप्रत्याशित छल. मुदा, विपरीत
परिस्थितिए में मनुखक व्यक्तित्वक असल परीक्षा होइत छैक. भवानी कें यथार्थक
सोझ बाट में हुनका कोनो व्यतिक्रम सेहो नहिं देखबा मे अबनि. एक कात छल अनायास, निःस्वार्थ
प्रेम. दोसर कात श्रीपतिक स्वार्थ. एहि स्वार्थक प्रत्यक्ष उपकरण रहथि ओ अपने आ
सतीश, एकटा पुरुष आ एकटा नारि. एकर विपरीत सतीश कें संयोग आ स्वार्थक उपजल श्रृष्टि आ अपन अस्तित्व
पर अपने मन प्रश्न चिह्न ठाढ़ करैत रहनि. मुदा, सतीश मनहिं मन आश्वस्त होथि जे भवानी
ने निर्बल छथि, ने ओ अपने मूर्ख छथि. हुनका अपन विवेक विश्वास रहनि. ओ इहो सोचथि
जे भवानी सेहो जतबे सरल छथि, ततबे दृढ़ छथि- ग्रेनाइट पाथर सन.’ से अवसर अयलापर प्रमाणित भइए गेल. ठीके, त्वरित
रूपें बदलैत घटनाक्रम अन्ततः एक दिन परिस्थिति
एकाएक बदलि देलकैक. परिस्थितिक ई मोड़ आशातीत छल. अनायास बीतल आठ वर्ष में की-की ने
भए गेलैक. आठ वर्षक एहि सुखद अवधि में एखनुक ई अचानक भूकम्प भवानी आ सतीश ले
नितान्त अप्रत्याशित छलनि. भवानी
सोचलनि श्रीपतिक स्वार्थसँ दूर, हुनकर अपन आ सतीशक बीचक सम्बन्धक में कोनो ग्लानि
नहिं. हुनक मनक ई भाव हुनका एकटा नव बल देलकनि, आ ओही बलसँ उपजल स्वतंत्रताक बोध
हुनका श्रीपतिक बंधनसँ मुक्त के देलकनि. ई एकटा नव अनुभूति छल.
6
सतीश कें ओ
दिन कोना बिसरतनि. हुनक अंतिम परीक्षा लगिचायल रहनि. पछिले राति श्रीपति भगवानपुर
आयल रहथि. नहिं जानि भवानीसँ राति में की गप्प भेल रहनि. दोसर दिन भोरे श्रीपति घर
मे अठाबज्जर खसा देने रहथिन. ओहि समय में सतीश कतहु गेल रहथि. वापस अयलाह तं जे किछु
होइत देखलनि ओहिसँ हुनका गप्प बुझबा में किछु भांगठ नहिं रहलनि. देखलनि जे श्रीपति
हुनक कुल पोथी-पतरा, बक्सा-पेटी आ वस्तु जात उठाकए घरक बाहर फेकि चुकल रहथि. श्रीपतिक
धृष्टता देखि ताधरि भवानी साक्षात् कालीक रूप मे आबि गेल छलीह- क्रुद्ध आ निर्भीक ! सतीश देखलनि जे क्रोध आ घृणासँ भरल भवानी श्रीपतिक आँखि में आँखि द’ कए हुनका ललकारि रहल छलीह, ‘अच्छा ? लोक नीक बेजाए
बजैए, से आइ बुझलिऐक ? हमरा बच्चा पर बच्चा होइत गेल आ अहाँ कें लाज भेल ? आब
एकाएक अपन प्रतिष्ठा मन पड़ल-ए’ ! ताहि पर क्रोधे आन्हर भेल श्रीपति, ‘चुप कुलटा !’
कहि अचानक बामा हाथें भवानीक झोंट पकड़ि जहाँ हुनका मारबाक हेतु जहाँ दहिना हाथ
उठौलनि कि भवानी अपन दाहिना पयर उठा श्रीपतिक
अंडकोषमें तेहन लात देलखिन जे हुनका ओतहि मूर्छा भए गेलनि. ई अप्रत्याशित छल. मुदा,
ई ओहि दिनुक घटनाक अंत नहिं छल. श्रीपति कें होश भेलनि तं ओ सतीश कें सेहो एकदम नव
स्वरुप में देखि हतप्रभ भए गेलाह. श्रीपति कें ललकारैत सतीश चिकरि रहल छलाह, ‘हमरे
घर आ हमही घरसँ बाहर हएब ? अहाँ हमरे समान
फेकि देल. अहाँक जोड़ा निर्लज्ज नहिं भेटत एहि संसार में. नपुंसक !! मुदा, अहाँक
काज एखन पूरा नहिं भेले. भवानीक समान तं भीतरे छनि. हिनको सब समान एखनहिं बाहर करू
. अहाँ हुनका कोन अधिकारसँ अपना लग रखबनि ?
ओ रहतीह एतय ? पुछियनु तं !’
श्रीपति सतीशक एहि अकस्मात् परिवर्तित स्वरुप ले प्रस्तुत
नहिं छलाह. क्रोध में हुनका सम्हार नहिं रहलनि. ओ एकाएक उठि सतीशक पर चिकरलाह, ‘लम्पट !’- आ क्रोध मे, ओसारा पर पड़ल
लोटा उठाकए सतीशक माथ पर दए मारलखिन. सतीशक कपारसँ छर-छर शोणित बहय लगलनि. सतीश
युवक छलाह. ओ अपना कें तुरत सम्हारलनि आ कूदि कए, एके छरपान मे, दाहिना हाथें
श्रीपतिक नरेटी पकड़ि , ‘आँखि में आँखि दैत कहलखिन, कए दियअ एखने लीला समाप्त ?’
श्रीपति के
अक्क-बक्क किछु नहिं फुरयलनि. हुनकर चेहरा पीयर भए गेल रहनि. भेलनि जे आब क्षण भरि
मे जं सतीशक हाथ ढील नहिं भेलनि तं प्राण नहिं बंचत. तखने, बिजलीक गति सं पुनः भवानी
बहरयलीह. क्रोध-घृणा आ हताशाक मिश्रित भावक अछैतो, ओ संयमित जकां सतीश कें कहलखिन,
‘छोड़ि दियनु हिनका. मरल विवेक, मृत्यहुसँ निकृष्ट थिक. हिनक प्राण लेबासँ किछु
नहिं भेटत. ई जीविते कहाँ छथि. ई कहि ओ श्रीपति कें देखि कहलथिन, ‘अहाँक पुरुषे कहयबाक टा ने लोभ
छल. से भेटि गेल ने ? हम अहाँक वंश बुड़बासँ बंचा देलहुँ. अहाँ पुरुख भ’ गेलहुँ ने !
अहाँ आब रहू. हम मुक्त छी. हमरा अपन बाट सोझ देखबामे अबैछ. हमरालोकनि चललहुँ .’
श्रीपति
अवाक् भए गेलाह. कहलखिन, ‘ एना जुनि कहू, भवानी ! हमर की हयत ?’
‘से अहाँ
जानी.’ भवानी अपन मन मे दृढ़ रहथि, तं सतीश कृतसंकल्प. भवानीक मन में कोनो दुविधा
नहिं छलनि. ओ कहलथिन,’हमरो एकटा पुरुष चाही जकरा केवल अपन मिथ्या प्रतिष्ठा टाक
लोभ नहिं, हमर आवश्यकतो होइक, हमर आदरो होइक.’ आ भवानी दुनू नेनाक डेन पकड़लनि आ उठि कए विदा भए
गेलीह, आ सतीश कें कहलखिन, ‘देखैत की छी ! चलू.’
श्रीपति
किंकर्तव्यविमूढ़ भेल, ठामहिं बैसल रहि गेलाह.
आइ एतेक दिनक बाद अकस्मात् सतीश आ भवानी कें न्यूयॉर्कक टाइम्स स्क्वायर में देखि मनमोहन कें भेलनि जे सत्ते ओ आइ एकटा आओर कुन्तीकें देखि रहल छथि; ई कुन्ती महाभारतक अबला नहिं, ई सत्यतः भवानी थिकी.