साहित्य, साहित्यकार, साहित्य-गोष्ठी, साहित्य-सम्मलेन आ साहित्यिक-उत्सव
साहित्य शब्द
सुपरिचित थिक. साहित्यकार के थिकाह, साहित्य-गोष्ठी की थिक, साहित्य सम्मलेन आ
साहित्य-उत्सवसँ की अभिप्राय छैक एहि सबहक परिभाषा देबाक काज नहि. तथापि, एहि लघु
लेखमे हम एही शब्द सबकें समकालीन परिप्रेक्ष्यमे प्रस्तुत करैत छी.
साहित्य
राजशेखरकृत
काव्यमीमांसाकें उद्धृत करैत म.म. सर गंगानाथ झा साहित्यकें निम्नवत् रूपें
परिभाषित केने छथि:
शब्द
और अर्थ का यथावत् समभाव अर्थात् ‘साथ होना’ यही ‘साहित्य’ पद का यौगिक अर्थ है- सहितयोः
भावः(शब्दार्थयोः) इस अर्थ से ‘साहित्य’ पद का क्षेत्र बहुत विस्तृत हो जाता है. (अर्थात्)
सार्थक शब्दों के द्वारा जो कुछ लिखा या कहा जाय सभी ‘साहित्य’ नाम के अन्तर्गत हो
जाता है- किसी भी विषय का ग्रन्थ हो या व्याख्यान हो- सभी ‘साहित्य’ है.[1]
आन अनेक
परिभाषाक अतिरिक्त ‘शब्दकल्पद्रुम’ साहित्यकें ‘मनुष्यकृतश्लोकमयग्रन्थविशेषः’
सेहो कहैत अछि: आ उदाहरणार्थ ‘स तु भट्टि-रघु- कुमारसम्भव-माघ-भारवि-मेघदूत-विदग्धमुख-
मण्डनशान्तिशतकप्रभृतयः’ क
उदहारण
दैत अछि.
साहित्यकार
साहित्यक श्रृजन
कयनिहार - कवि/ नाटककार/ निबन्धकार, वा व्याख्यान देनिहार - साहित्यकार भेलाह.
साहित्यिक गोष्ठी
साहित्यिक
गोष्ठीसँ साहित्यकारक एक छोट समुदायक बोध
होइछ जे एक ठाम बैसि अपनहि बीच कृतिक आदान-प्रदान, वा कोनो विषय-विशेष पर चर्चा आ
मंथन करैत छथि. ओना शब्दकोषक अनुसार गोष्ठी गोशाला सेहो थिक; आ ई समूहवाचक संज्ञा
थिक. ई एहनो एक स्थान थिक जतय एक प्रकारक पशु सब राखल जाइछ. किन्तु, साहित्यक
सन्दर्भ मे ई सार्थक नहि.
साहित्य-सम्मलेन साहित्य-सम्मलेन साहित्यकार लोकनिक स्थायी
वा तात्कालिक वृहत् सभा थिक. जे सभा समय-समय पर, वा नियत अवधि पर आयोजित होइछ. ओकर हेतु, अवधिक अनुसार मासिक, अर्द्धवार्षिक
वा वार्षिक इत्यादिक विशेषणक प्रयोग कयल जाइछ. अनियतकालीन सम्मलेन तात्कालिक वा
तदर्थ भेल.
साहित्य-उत्सव
उत्सव शब्दक
‘उत’ उपसर्गसँ ‘सव’ (अर्थात् सांसारिक दुःखक
)निवारणक अभिप्राय अछि. ओना ‘आगम (हिन्दू
धार्मिक ग्रन्थ)’ क अनुसार उत्सवसँ मन्दिर
सबसँ संबंधित विशिष्ट सामुदायिक पर्व इत्यादिक आयोजन आ सहभगिताक बोध होइछ ; दैनिक,
मासिक आ सांवत्सरिक अवधिक अनुसार उत्सवक प्रकार थिक.
साहित्यिक
उत्सव एहन अवसर वा आयोजन भेल जाहिमे सहभागी लोकनिक हेतु अभिव्यक्ति, प्रदर्शन, समीक्षा
एवं (कृति सबहक) मंथनक कारण साहित्यकार आ साहित्य-प्रेमी लोकनिक हेतु आनन्द,
उल्लासक वातावरणमे बौद्धिक आदान-प्रदान आ मोनोविनोदक वातावरणक श्रृजन होइक.
अभिव्यक्ति,समीक्षा एवं मंथनसँ सामूहिक आनन्द आ उल्लासक वातावरणमे बौद्धिक आदान-प्रदानक हेतु आवश्यक थिक जे एहिमे साहित्यक विविध विधाक रचनाकार- उपन्यासकार, कथाकार, आलोचक, जीवन-वृत्ति, यात्रा-वृत्तान्त, आ संस्मरणक रचनाकार- आ सब स्तर आ वयसक साहित्यकारक सहभागिता होइनि, सबकें अभिव्यक्तिक समुचित अवसर भेटनि. मुदा, से तखने संभव छैक, जखन साहित्यकार आ साहित्य-प्रेमी एकर आयोजनक सूत्रधार होथि, हुनका लोकनिक सहभागिता होइनि, सहित्यकार आ साहित्य-प्रेमीकें एक-दोसराक सोझाँ-सोझी हेबाक मंच भेटनि, कृति आ कृतीकें देखबाक अवसर भेटनि. संगहिं, साहित्यकारकें अपन कृतिकें देखेबाक, सुनेबाक, आ समालोचना तथा पाठकीय प्रतिक्रिया सुनबाक अवसर भेटनि, पोथी देखयबाक आ बेचबाक स्थान आ मंच भेटनि.
एहि सब लेल अर्थ आ आयोजन चाही. मुदा, एहि सबहक खर्च के वहन करत ? आयोजनक भार के लेत ? स्पष्ट
छैक, जनिका लोकनिक उत्सव, सएह आयोजन करथु, अर्थ जुटाबथु खर्च वहन करथु. खाली हाथें कोन उत्सव
संभव अछि. तें साहित्यकार आ साहित्य-प्रेमी जं आयोजक होथि तं उत्सवो हुनके थिक. हं,जं
सम्मलेनमे खरीद-बिक्री आ व्यवसायी-विक्रेताक हेतु अर्थलाभक अवसर होइक तं
लाभान्वित व्यापारीसँ किछु आर्थिक सहायताक आशा भए सकैछ. एकर अतिरिक्त केंद्र
सरकार, राज्य सरकार, साहित्य-प्रेमी संस्था वा व्यक्ति सबसँ सेहो साहित्यिक आयोजनकें
आर्थिक भेटैत छैक. किन्तु, कतेक बेर सहायता शर्तक संग अबैत छैक; संस्था वा सरकार विचार
वा वादक प्रति प्रतिबद्धताक आशा करैछ. तर्क ई जे, ‘he who
pays the piper,
calls the tune’. एकर अतिरिक्त, कोनो व्यक्ति, समुदाय,
वा समूह जं साहित्यिक गोष्ठी-सम्मलेन-वा उत्सवक आयोजन करताह तं ओएह साहित्य, साहित्यकार,
आ साहित्यिक उत्सव, ओकर स्वरुप आ आकारकें परिभाषित करताह. एहन आयोजनमे साधारण
लेखक आ आम पाठकक उत्सव थिक वा नहि, ओहिमे आम साहित्यकार आ साहित्य-प्रेमीक सहभागिता
संभव छैक वा नहि से आयोजक पर निर्भर अछि.
1. म.म. सर
गंगानाथ झा.कवि-रहस्य, 1928. हिंदुस्तान एकेडेमी, प्रयाग.pp 6