Thursday, October 25, 2018

हमर कविता


हमर कविता
पहिल कविता कहिया लिखलहु, सत्यतः, मोन  नहिं अछि; प्रायः, पंचम वर्गमें रहल हयब. नेनपन में स्व. किरणजी प्रेरणा-पुंज छलाह. कनेक दिनक बाद- अपन दोसर जेठि बहिनक विवाहक पछाति – रानीटोल गामक कवि (रामचन्द्र झा) ‘चन्द्र’ सं सम्पर्क भेल. चन्द्र आशुकवि छलाह आ पत्राचार धरिमें कवितेक प्रयोग करैत छलाह. देखाउसे हमहूँ कविते में उत्तर दैत छलियनि. हुनकर लिखल हमर नामक किछु पत्र एखनो सुरक्षित अछि.                                                 
क्रमशः जौं-जौं किशोरावस्था आ वयः संधिक दिस अग्रसर भेलहुँ जीवनक त्रासदी आ जन-परिजनक आर्थिक विपन्नतामें अपन हाथ बंटयबाक असमर्थता जेना-जेना ह्रदयमें शूल जकां गड़इत छल लिखबाक प्रवृत्ति तहिना प्रस्फुटित होइत रहल. संयोग एहन छलैक जे अनायासे एकक-बाद दोसर, आर्थिक आधारस्तंभ अग्रज, आ नेनपनक संगिनी बहिन, क्रमशः दिवंगत होइत गेलीह. तहियाक आघातकें क्रमशः समय भरने जा रहल अछि. किन्तु, जेना जोड़क दर्द विपरीत ऋतु आ वायुसं उपकि अबैत छैक तहिना पचीसो वर्षसं पूर्वक व्यथा यदा-कदा मोनकें खिन्न क दैत अछि. किन्तु, ई विषयांतर भेल. विषय थिक, जे हमर कविता हमरा ले की थिक ? कविता माने, अपन कविता. एकरा हम एकटा ‘रिलीज़’, मोनक भड़ास निकालबाक माध्यम कहि सकैत छी. अपन हृदयक उद्गारक प्रदर्शन मानि सकैत छी. किन्तु, नितान्त व्यक्तिगत- जंगलमें मयूरक नाचब-जकां . तखन प्रश्न उठैछ , अभिव्यक्ति कविते में किएक  ? पता नहिं ! हिन्दी सिनेमामें कलाकार-पात्र जखन अवसाद सं आछन्न रहैत अछि, तं, गीत किएक गबैत अछि. सामान्य जीवनमें तं एना नहिं होइत छैक. कविकुलगुरु वाल्मीकिक कंठसं मिथुन क्रौंचकें आहत होइत देखि कविते किएक निसृत भेलनि ? उत्तर हमर ज्ञान सं बाहर अछि.                
किन्तु, कविताक भाषा ? ओकर आवरण ? कखनहु मोटगर रंग-बिरंगी , जटित-मंडित रेशमी व पाटम्बर, तं कखनहु मात्र देह झंपबा योग्य किन्तु , आकर्षक खद्दर, तं, कखनहु बस वएह गुदडी जे देहक प्रत्येक घाव, रोग , आ नासूर-नछोड़कें  अभिव्यक्ति दैत हो – चाहे विवशतामें वा सबकें बोधगम्य करयबाक लोभें. किन्तु, सबटा सहजतासं, जे जेना बनि गेलैक. कोन ठेकान, कखनो काल संजल-संवरल, ठोप- काजर कयल नागरि सं बेसी आकर्षक सहज-सरल परिधानमें लपटलि कृषक कन्याए होइत छैक. तखन इहो सत्य जे सोन-चानी-मणि-माणिक्य-मोती जकरा रहतैक सएह ने पहिरत, पहिराओत. हमरा एहि सं कोनो विवाद, मतान्तर नहिं. किन्तु, हमरा जे अछि से हमर स्थिति-पारिस्थिति आ अवगतिक संग मानसिकताक द्योतक सेहो थिक. कहबी छैक, गुदडीओमें लाल छिपल होइछ. से जं अहाँकें दृष्टिगोचर होइत अछि , तं, चुनू, देखू, हलसू-बिहुँसू.
एकर अतिरिक्त प्रश्न अछि विषय वस्तुक. हमरा बुद्धिऐ जे नीक-बेजाय स्वतः-सहजहिं मोनकें हिलोडि दैत अछि वएह हमराले काव्य-बीज थिक. तखन बीआ पडलापर ओ कखन अंकुरित होइत अछि, केहन प्रस्फुटित-विकसित होइत अछि से हमर मने टा पर नहिं, तत्कालीन मनोभाव पर सेहो निर्भर करैत अछि. जोतल-कोडल, ढकियाओल-समारल खेत आ परती-परांट पर एक रंग फसिल कोना उगतैक ! एहि संग इहो कहब उचित, जे सब बीआ सेहो एक रंग नहिं होइत छैक - किछु भारी आ सबल, तुरत भूमि पकडि अंकुरित भ जाइत छैक, आ किछु फुलकी-जकां हल्लुक, खसल, उडल, सुखायल, सडल आ बिला गेल. तें, दृश्य घटना आ आ श्रव्य अनुभूति ह्रदय प्रदेशमें हरक फार बनि जतेक गहिंड रेखा खींचैत अछि ओकर अभिव्यक्ति ओहने प्रखरता सं निसृत होइत अछि. एतबा अवश्य जे करुणा हमरा बड सरलता-सहजतासं हिलकोरैत अछि. तें, समाजक विसंगति सतत हमर प्रेरणा थिक. मिथ्याचार नीक नहिं लगैत अछि, तें, तामस चढ़बैत अछि ; लोकक अहंकारसं  धाह लगैए तें उठि कय भागय पड़ैए वा अहंकारमें विवेकक पानि ढारबाक प्रवृत्ति जोर मारैए ; कखनहु व्यवहारतः तं कखनहु स्वगत. इएह स्वगत मानसिक प्रतिक्रिया हमर कविता थिक !
22.3.98 शिमला
(बीस वर्ष पूर्व लिखल, कतहु फाइलमें पड़ल ई लेख अकस्मात एक दिन देखबामें आयल. एहिसन पहिने कि ई हेड़ा जाय, एकरा एहि ब्लागस्पाट पर प्रकशित करब उचित बुझना गेल. अस्तु.              

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