अदृश्य किन्तु सर्वव्यापी
सत्संग समाप्त भए गेल रहैक. भक्तलोकनि घोदा-माली भेल गुरूजीकेँ घेड़ने बैसल
रहथि. जकरा जे फुरैक, प्रश्न पूछि शंका-समाधान करैत छल. शीबू सेहो कतेक शंका शमाधन
केलनि. हुनक शंका-समाधानसँ गुरुजी संतुष्ट भेलाह, तँ मन भेलनि चूल्हि पर चढ़ल
बासनमे रन्हाइत भात म सँ एकटा चाउर निकालि परीक्षा कइए ली, भात सिद्ध भेलैक की
नहि. अस्तु, ओ सोझे शीबू दिस तकैत पूछि देलखिन, ‘भगवानकेँ अहाँ कोन रूपमे देखैत
छियनि?’
शीबू एहि प्रश्न लेल प्रस्तुत नहि छलाह. अकस्मात् पूछल एहन प्रश्नसँ हुनक वाक्
बन्न भए गेलनि. ओ अकबकाएल चारू भर ताकए लगलाह. शीबूकेँ अकबकाएल देखि गुरूजी जोर
दैत एक बेर फेर पुछखिन: ‘भगवानकेँ अहाँ कोन रूपमे देखैत छियनि?’ अकस्मात् शिबूक
नजरि मंचक एक कातमे ओंघड़ायल थ्री-एक्स रम केर एक खाली बोतल पड़ पड़लनि तँ जानमे जान
एलनि. नजरि ऊपर उठओलनि तँ देखलखिन गुरुजीक दृष्टि हुनकहि पर केन्द्रित रहनि. फलतः,
हड़बड़ीमे अकस्मात् शीबूक मुँहसँ बहरा गेलनि: ‘रम-रम, शराब-जकाँ!’
‘अच्छा?’ कहैत आश्चर्यमे गुरुजी मुँह खुजलनि से खुजले रहि गेलनि.
‘जी.’ पूर्ण आत्मविश्वाससँ शीबू अपन उत्तर स्वीकारैत कहलखिन.
‘से कोना?’
‘ईश्वर अदृश्य छथि, कतहु देखबनि नहि’
‘ठीके.’
‘मुदा, छथि सबठाम. सर्वत्र विद्यमान.’
‘अद्भुत्!’
‘मुदा, जखने परम भक्तिसँ आर्त्त भक्त ईश्वरकेँ स्मरण करतनि, प्रकट भए जेताह.’
शिष्य द्वारा विषयक एहन प्रतिपादनसँ गुरु अकस्मात् अभिभूत भए गेलाह आ हुनक दुनू
हाथ प्रणामक मुद्रामे माथक ऊपर चल गेलनि. मुदा, शीबूक कहब एखन समाप्त नहि भेल रहनि.
ओ पुनः बाजब शुरू केलनि, तँ गुरु पुनः साकांछ भेलाह.
‘एहन गुण बिहारमे शराबेटाकेँ छैक, गुरूजी!’ कहैत शीबू अपन
तर्ककेँ विराम देलनि.
गूढ़ विषयक एहन सूक्ष्म विश्लेषणसँ गुरूजीकेँ भेलनि जेना शिष्यक सोझाँ दुझपिबा नेना
होथि. ओ ठामहि अचेत भए गेलाह!
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