Sunday, May 1, 2016

स्व. प्रोफ़ेसर रमाकान्त मिश्रक जुलियस सीज़र : मैथिली अनुवाद

                              जुलियस सीज़र : मैथिली
प्रोफेसर रमाकान्त मिश्रक लिखल शेक्सपियरक विश्वप्रसिद्ध कृति ' जूलियस सीज़र ' क मैथिली अनुवाद मित्रवर प्रोफेसर श्रीश चौधरीक सौजन्य सं भेटल . 2011 ई०  में पिंडारुछक पाञ्चजन्य ट्रस्ट एहि पोथीक कें प्रकाशित केने अछि.
ओना तं विश्वप्रसिद्द रचना सबहक  सब केओ आदर करैछ; पढ़नहु वा बिनु पढ़नहु. मुदा, इच्छा रहितो, भाषाक बाधाक कारणें, बहुतो गोटे विश्व साहित्यक अनेक अनुपम कृतिसब  पढ़ि नहिं पबैत छथि; पाठकले ई  एकटा  विकट समस्या होइछ. तें प्रोफेसर श्रीश चौधरी एहि पोथीक प्रकाशकीय में कहैत छथि ' '(अनुवाद साहित्यक  उपलब्धताक दृष्टियें ) मैथिली कनेक पछुआयल  बुझाइत  अछि . संस्कृत , प्राकृत एवं किछु आधुनिक भारतीय भाषाक थोड़ेक कृतिक अतिरिक्त मैथिली में अनुवाद कम्मे भेल अछि . तीन सय वर्ष सं बेसी सं अंग्रेज आ अंग्रेजीसं संपर्क रहितो , मैथिली में अंग्रेजी कृति सबहक संख्या नगण्य अछि .'                                                                        तें, पिंडारुछक पाञ्चजन्य ट्रस्ट एहि पोथीक कें प्रकाशित कय पाठकक आ मैथिलीक बड उपकार केने अछि . तथापि, सुपरिचित नाम आ विश्वविदित पोथीक अनुवाद ले अहाँ की सोचबैक ? ठीक छै , अनुवाद थिकैक . मातृभाषाक प्रेम में अनुवादक परिश्रम केने हेताह . नव की हेतैक ! मुदा हम विश्वासपूर्वक कहि  सकैत छी, एहि पोथीमें बहुत किछु नव  छैक . ओ नव गप्प थिक, सरल भाषा  आ पाठककें बान्हि कय  रखबाक क्षमता.  जूलियस सीज़रक एहि मैथिली अनुवाद कें हम पढ़ब आरम्भ केलहुं तं 115  पृष्ठक पोथीकें समाप्त कइएक छोड़ल. हमरा बुझने, ई  पोथी अनुवाद साहित्य में एकटा प्रतिमान स्थापित करैत अछि.
शेक्सपियरक 'जूलियस सीज़र' नाटकक कथा सर्वविदित अछि  . मुदा, मैथिल समाज वा मैथिली साहित्यमें एहि प्रकारक उपाख्यान, जाहिमे  एक सेनापतिक  महत्वाकांक्षाकें नागरिकक  आ गणतंत्रक शत्रु बूझि, सेनापति लोकनिक  दोसर दल राष्ट्रहित में तरुआरि उठौने होथि, हमरा जनैत , नहिं छैक. तें , मैथिली में एहि नाटकक मंचन दर्शक पर केहन प्रभाव हेतैक से कहब असंभव . मुदा , ई मैथिली अनुवाद हमरा मोन पर एकटा अमिट  छाप छोडलक.
कथानक आ  सामाजिक परिदृश्य पुरान छैक. शेक्सपियरक अभिव्यक्तिक शैली, अंग्रेजी भाषाक बानि, आ कविताक शैली आइ बदलि चुकल छैक . तें ठेंठ मैथिली भाषा में , मैथिलीक मुहावरा-लोकोक्तिक प्रयोग करैत,  'जुलियस सीज़र' सन ग्रंथक एहन अनुवाद सुलभ नहिं . तथापि मैथिलीक विपुल शब्द भण्डारक सिद्धहस्त प्रयोगक बलें अनुवादक एहि कालजयी साहित्यक मूल आत्मा कें सरल आ हृदयग्राही भाषा में प्रस्तुत करबाक में पूर्णतः सफल भेल छथि . हमरा विश्वास अछि,  प्रोफेसर मिश्रक एहि अनुवाद में पाठक लोकनिकें शेक्सपियरक साहित्यक आ मूल मैथिली ग्रंथ, दुनूक, स्वादक अनुभूति हेतनि.  कविताक सरल प्रवाहमें महत्वाकांक्षा, षड्यंत्र , ईर्ष्या , वीरता , आ वफादारीक आख्यान तेना गतिमान  छैक जे लागत जे विलियम  शेक्सपियर आ अनुवादकक आत्मा एकाकार भ गेल छनि; हयत जे अनुवादक-कवि अपन अनुभव आ मनोभाव कें अपन मातृभाषामें सोझे-सोझ सुनबैत होथि . दीर्घ काल धरि अंग्रेजी साहित्य आ शेक्सपियरक कृतिक गहन अध्ययन, परिपक्व अनुभूति, आ परिश्रमक बलें  मैथिली कें एहन कृति देबा ले प्रोफेसर मिश्र अनेकानेक साधुवादक पात्र छथि . लियअ किछु अनूदित कविता प्रोफेसर मिश्रेक मुँहे सुनु :                               .............................................
यौ कासका , बाहरन -सोहरन खढ़-पातमे शीघ्रतासं पकड़इत छैक आगि; 
रोमवासीक संग सीज़र सैह क रहल छथि आइ
एकरा सभकें बाहरन-सोहरन बूझि पजारि रहल छथि महत्वाकांक्षाक आगि
बुझू जे तकरहिं धधरासं आलोकित छनि हुनकर स्वरुप..............                                                                                          - पृष्ठ 22
आओर सुनु ...............................................
यद्यपि व्यक्तिगत स्तरपर नहिं अछि हुनका सं बैर 
मुदा, एहि ठाम त छैक सार्वजानिक हितक बात .
जखन सीज़रक माथपर राखल जयतनि राजाक ताज तखन के कहलक,
कोन रुपें बदलि जाइनि हुनक स्वभाव                                                                                                    - पृष्ठ 25
मैथिली कहावत ................. 
आह  ! त इएह छी अपने, हे षड्यंत्र !
ठीके कहैत छै लोक जे चोरकें सह्य नहिं होइछ इजोत 
तें , अन्हारे में करैत छ तों घृणितसं घृणित अपराध ..............                                                                                            -पृष्ठ २८

ब्रूटस केर मुँहे निकलैत शेक्सपियरक अभिव्यक्तिक  मैथिली अनुवादक एकटा पैघ अंश उधृत करबाक लोभ होइत अछि. प्रोफेसर रमाकांत मिश्रक शब्दमें सुनू :
...... बड क्रूर सन  लगतैक एतेक हिंसा आ रक्तपात 
लगतैक जेना कसाइ जकां बध्यपशुक मूड़ी काटि 
पंगलिऐक हमरा लोकनि ओकर अंग प्रत्यंग .
एन्टोनी त छथि सीज़रक मात्र एकटा अंग 
जखन मूडिए देबैक काटि तखन की क सकतैक ओ अंग ?
हमरा-अहाँकें कसाइ ने बूझय लोक तकर अछि डर;
सीज़र नहिं,सीज़रसाहीक कयल अछि अंत,से बूझय लोक
शरीरक सत्व थिकैक मन, जाहिमें नहिं होइत छैक  रक्त
संभव होइतैक त शरीर नहिं, हुनक सत्वे करितहु नष्ट !
........................
तें आग्रह अछि जे बलिदानक भावें कयल जाय वध ;
आ ताहि लेल मनमें जुनि  राखल जाय विद्वेष आ क्रोध;
कोनो रुपें नहिं होयबाक चाही हुनक अपमान
बूझक चाही जे ई बलि-पशु छथि देवता पर चढ़बाक योग्य 
कसाइक परिकठक मासु नहिं,जकरा कौओ-कुकुर लैत छैक लूझि ; 
................................................
बूझय  लोक जे समाजक हितक लेल भेलैक अछि ई दुष्कर्म .........                                                                             -पृष्ठ 32
सारांशमें, हमरा मतें, जुलियस सीज़र ( मैथिली ) उत्तम कोटिक अनुवाद थिक. मुदा, ग्रंथक स्वादक आ नीक-बेजायक निर्णय तं पाठक अपनहिं पढ़ने क सकैत छथि .                                                                                          

नोट: हमरा जनैत मैथिलीमें बहुतो किछु लिखल गेल अछि  . मुदा , अर्थाभावे , काल-क्रमें कतेक कृति  बाढ़िक पानि में भासि गेल , सडि गेल वा दिवाडक भोजन भ गेल . प्रोफेसर रमाकान्त मिश्रक मैथिलीमें  हैमलेटक अनुवाद प्रकाशित छनि . तथापि ,प्रायः पाठकक प्रोत्साहनक अभाव में,  प्रोफेसर रमाकान्त मिश्रकें विश्वास भ गेल रहनि जे जूलियस सीज़रक हुनक मैथिली अनुवाद सेहो ' वल्मीकक भोजनक लेल परसल -पड़ल' तैयार छलनि . हमरा हर्ष अछि , पाञ्चजन्य ट्रस्ट, पिंडारुछ एहि पोथीकें प्रकाशित कय पाठकक समक्ष अनलक.

जुलियस सीज़र : मैथिली 
मूल: विलियम शेक्सपियर          
अनुवाद :प्रोफेसर रमाकान्त मिश्र                                       
प्रकाशक: पाञ्चजन्य  ट्रस्ट, पिंडारूछ , जिला दरभंगा     
प्रकाशन वर्ष: 2011       पृष्ठ : 115 मूल्य : रु. 300

पुनश्च : समीक्षा लिखब पाठक-समीक्षकक काज थिकैक . छापब पत्रिका आ सम्पादकक. इहो समीक्षा कतहु, कतहु बौआयल . केओ छपनिहार नहिं . ठीके, जखन पाठकेकें पोथीक परबाहि नहिं, तखन समीक्षा कें  के पूछय. आबतं अनुवादको स्वर्गीय भ गेलाह . तें हमहूँ अपन समीक्षाकें अपनहिं छापि लेबाक मनोरथ पूर कय ली ! ततबे . 


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