Saturday, March 6, 2021

यात्री-नागार्जुन: 'तोहर सरिस एक तोहें माधव'

 

यात्री बैद्यनाथ मिश्र नागार्जुन केर प्रशस्ति आ आलोचना में बहुतो कहल आ लिखल गेल अछि आ अओरो कहल जायत. किन्तु, यात्रीक व्यक्तित्व आ रचनाक कोन एहन तत्व अछि जे हुनका समकालीन मैथिली साहित्यकार सबसँ भिन्न करैत छनि ? सत्य पूछी तँ, यात्रीमें अपन समकालीन सब समानताए की रहनि ! तथापि,  एतय केवल पहिले प्रश्न पर विचार करी. हम एहि विमर्शक हेतु तर्क यात्री-नागार्जुनहिंक रचनामें तकैत छी.

समकालीन लोक आ सामान सामजिक वर्गक व्यक्तिमें सामाजिक अवस्थाक लगभग समान अनुभव होइछ. तथापि, दृष्टिकोणक  भिन्नताक कारण सब केओ एके परिदृश्य वा घटना सँ समान निष्कर्ष नहिं निकालैत छथि. दृष्टिकोणक  इएह भिन्नता एक पीढ़ीक साहित्यकार लोकनिक बीच विचारक भिन्नता आ अभिव्यक्तिक विविधताक  कारण थिक. यात्री जीवन आ दृष्टिकोण आ रचनामे निर्विवाद अपन समकालीन सबसँ भिन्न रहथि. किन्तु, कोना ताहि पर विन्दु-विन्दु विचार करी.

1938 में प्रकाशित प्रसिद्द हिंदी कविताबादल को घिरते देखा हैमें यात्री-नागार्जुन कहैत छथि:

तुंग हिमालय के कंधों पर
छोटी-बड़ी कई झीलें हैं,
उनके श्यामल नील सलिल में
समतल देशों से आ-आकर
पावस की ऊमस से आकुल
तिक्त-मधुर विष-तंतु खोजते
हंसों को तिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।

हमरा जनैत ई कविता केवल कोनो एकटा परिदृश्यक नहिं, बल्कि यात्रीक विस्तृत दुनिया देखबाक संकेत आ भिन्न अनुभवक कथा कहैत अछि. विदित अछि, विस्तृत विश्वक दर्शन यात्रीकें अनुभवक विशाल क्षितिज आ भिन्न दृष्टि देलकनि. फलतः, विश्व भरिक घटनाके अपन साहित्यमें ओहिना समेटलनि जेना मिथिलाक समस्याकें. तें हुनक कवितामें मिथिलाक समस्या परबूढ़ बरआ विश्वक परिस्थिति परकी लालदुनू भेटत.

दोसर गप्प, यात्री-नागार्जुन पर अपन काजक बल पर कतेकोछापलगलनि. यद्यपि, हुनका केओ मार्क्सवादक 'ढोलिया' बुझलखिन, तं, केओगोड़ा  लगाओल कहलगैंयां लोटा’. किन्तु, कोनो धर्म, व्यक्ति, वाद वा पार्टी यात्री जीकें खुटेसि कय नहिं राखि सकल, कोनो कलइ हुनक भीतरी धातु पर पक्का नहिं भए सकल. ओ रमता जोगी , बहता पानी तं छलाहे, भौतिक आ वैचारिक दुनू स्तर पर. तें, जखन जतय मन भेलनि बिदा भगेलाह. हुनका गृहस्थ तँ नहिंए बूझि सकैत छियनि. जँ प्रमाण चाही तँ, नीचा देल उद्धरण देखू. ई निर्विवाद यात्रीक पारिवारिक दायित्वसँ विमुखताएक प्रमाण थिक. कारण भले जे हो :

कर्मक फल भोगथु बूढ़ बाप
हम टा संतति, से हुनक पाप
ई जानि ह्वैन्हि जनु मनस्ताप

यद्यपि स्वयं यात्री जीमिथिला कें अंतिम प्रणाम'  हेतु निम्न पांती में  अपन 'रमता जोगी'क प्रवृत्तिक समर्थन करैत समुचित औचित्य सेहो प्रस्तुत करैत छथि:  

दुःखओदधिसँ संतरण हेतु
चिरविस्मृत वस्तुक स्मरण हेतु
सूतल सृष्टिक जागरण हेतु
हम छोड़ि रहल छी अपना गाम

मुदा, हुनक जीवन मे एहि सब उद्देश्य म सँ सबसँ प्रबल कोन प्रेरणा रहनि से कहब कठिन. तथापि जँ ओ सनातन धर्म छोड़ि, दीक्षा लय बौद्ध भिक्षुओ भेलाह, तं, पुनः उपनयन करा कय फेर जनौ सेहो पहिरलनि. अर्थात् , ओ सब परिस्थिति में सामाजिक दवाबक प्रतिरोध नहिं कए सकलाह. मुदा, हुनकर  मन जतय जखन भरि गेलनि, तँ, देहक चोला-जकाँ विचारो  बदलि लेलनि. तें,  जहिना, स्टॅलिनवाद आ मार्क्सवादक समर्थको बनलाह, तँ पछाति ओकर निंदा सेहो केलखिन. इन्दिराकें प्रगतिवादीओ कहलखिन, तं, इन्दिराक विरुद्ध जयप्रकाश नारायणक मुहिम में सेहो हिस्सा लेलनि आ कविताओ गढ़ि देलखिन:

क्या हुआ आपको ?
क्या हुआ आपको?
सत्ता की मस्ती में
भूल गई बाप को?
इन्दु जी, इन्दु जी, क्या हुआ आपको?
बेटे को तार दिया, बोर दिया बाप को !
क्या हुआ आपको ?
क्या हुआ आपको?

कारण, कोनो व्यक्तिक महानता, हुनका लोकनिकें यात्री-नागार्जुनक कोप वा उपहास बंचा लेतनि तकर गारंटी नहिं.  केओ, वा केहनो होथि, यात्री सबके एकहिं लाड़निसँ  लाड़ि दैत छलखिन. गाँधी- गाँधीक अनुयायी लोकनिपर नागार्जुनक प्रहार नीचा देखल जाय:

हमें अँगूठा दिखा रहे हैं तीनों बन्दर बापू के!
कैसी हिकमत सिखा रहे हैं तीनों बन्दर बापू के!
प्रेम-पगे हैं, शहद-सने हैं तीनों बन्दर बापू के!
गुरुओं के भी गुरु बने हैं तीनों बन्दर बापू के!
सौवीं बरसी मना रहे हैं तीनों बन्दर बापू के!
बापू को ही बना रहे हैं तीनों बन्दर बापू के!

किन्तु, यात्री मनुखक दिन-प्रतिदिनक जद्दोजहदकें ततबा प्रधानता दैत रहथिन, जे कष्ट में हुनकाकखन हरब दुःख मोर हे भोलानाथक हेतु धैर्य नहिं रहनि. हुनक उक्ति तँ इएह कहैछ जे हुनका मोने जं ओ कष्ट में छथि आभोलानाथनिर्द्वंद सूतल छथि तँ भोलेनाथ बातो-कथा- गारिओ सुनथु : 

पचकल लोढ़ा, तों धन्न रह
नहि आब नचारी केओ गओतहु !
जे बूड़ि हैत से बोकिअओतहु !
नहि रहलइ ककरो किच्छु मात्र तोहर भरोस ....
माटिक महत्वकें  चीन्हि लेलक ई देश-कोश !
पाथर भेलाह तों सरिपहुँ बाबा बैदनाथ !
नहि नबतै तोरा खातिर किन्नहु हमर माथ !

तेसर गप्प, जे यात्रीकें अपन समकालीन लोकनिसँ भिन्न करैत छनि, से थिक यात्रीक जीवनमें साहित्यक उपादेयता. यात्रीक हेतु साहित्य जीविकाक साधन छलनि. एहना परिस्थितिमें साहित्यक लोकप्रिय आ बिकयबा जोकर हयब आवश्यक. सत्यतः, जं विचार करी तँ ओ केवल यात्री ए टा रहथि जे मैथिली उपन्यासक विधाकें परिचये टा नहिं देलखिन बल्कि ओकरा प्रगतिशील विचार सँ पुष्ट केलनि. ततबे नहिं, यात्रीक मन में मैथिली आ हिन्दीक बीच कोनो दुविधा सेहो नहिं छलनि. जाहिसँ हुनकपेट  भरैत छलनि, तकर पीड़ी पर सब किछु चढ़बैत छलाहआ तकरा उचितो बूझैत छलाह .हुनकर पीढ़ीक दोसर प्रसिद्द साहित्यकार  स्व. सुमन जी-सन साहित्यकार आरम्भ में साहित्यसँ जीविका चलबितो छलाह, तँ, हुनका नियामिकी नौकरीओ रहनि, आ वेतन सेहो भेटैत रहनि. नौकरी-पेशा साहित्यकार लोकनिक साहित्यक लोकप्रियता आ पोथीक बिक्री, हुनका लोकनिक  जीवन-यापनकें प्रायः ओतेक प्रभावित नहिं करैत रहनि जतेक यात्रीकें . हँ, ई गप्प भिन्न जे यात्रीक स्वर आ तेवर तेहनि रहनि, जे, हमरा नहिं लगैत अछि, यात्रीकें अपन लोकप्रियताक हेतु कोनो आयास करय पड़ल हेतनि.कारण, समाज, व्यक्ति, आ घटनाक  प्रति यात्रीक प्रतिक्रिया ततेक अनायास आ त्वरित होइत छलनि जे हुनक स्वर अनेरे सबकेँ आकृष्ट कए लैत छलनि. हँ, इहो स्मरण रखबाक थिक जे यात्रीक अधिकतर हिन्दी रचना हुनकासँ लिखाओल गेलनि. माने, रचना आ प्रकाशन मे कोनो बिलंब नहिं. हिन्दी रचनाक मांग रहैक. आब, प्रकाशित रचना हिन्दी में लोकप्रिय भए गेल, तँ  मैथिली मे ओकर  प्रचारक कोन आवश्यकता.

एकटा गप्प आओर . अपन समकालीन लोकनिक विपरीत, यात्री एहनो विषय आ व्यक्ति- यथा, कांसीराम आ मायावती - पर कविता लिखलनि, जे साहित्यक मुख्यधारा लेखनक विषय नहिं बूझल जाइत छलाह.हमरा जनैत, यात्रीक इहो प्रवृत्ति, लीकेसँ हंटि कय चलबाक बानि, आ हुनक विरल प्रतिभाए प्रमाण थिक.

 


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