2020 में COVID
19 की लहर खतम हो जाने के बाद, सितम्बर से दिसंबर 2020 तक
करीब तीन महीने लोगों ने चैन की सांस लेनी शुरू की थी. लोग-बाग़ बाज़ार जाने लगे थे.
होटलों में बैठ कर खाने की इजाज़त शुरू हो गयी थी. दिन-प्रतिदिन अस्पताल में
संक्रमण का डर तो था, लेकिन, लोग थोड़ा लापरवाह होने लगे थे. जनवरी से मार्च 21 के
बीच तो अस्पताल में फ्लू क्लिनिक और COVID वार्ड बंद हो गया था. सचमुच, स्वास्थ्यकर्मी
भी थक चुके थे. फलतः, साल भर के सख्ती के बाद
थोड़ी ढील से हमें आफ़ियत महशूस होनी लगी थी. लेकिन, मार्च 21 के अंत तक
एकाएक सूरत बदलने लगी. अप्रैल की एक तारीख से महाराष्ट्र से कर्नाटक में दाखिल
होने के लिए कोरोना मुक्त होने का प्रमाण-पत्र माँगा जाने लगा. ऐसी ही परिस्थिति में 31 मार्च को हम पांडिचेरी से बंगलोर आए.
नया शहर, नई
कोलोनी. हम अपरिचित थे. दो चार परिचित आगे आये, खैरमकदम भी किया. पर नए लोगों से
दोस्ती करना तो दूर, पुराने परिचित को पहचानना मुश्किल था. सभी के चेहरे पर मास्क.
बीस साल के परिचित युवक अब सिनियर सिटिज़न हो चुके थे. बहुतो कें सर पर घने बाल की
जगह चमकदार चमड़ी या सन-से सफ़ेद बाल ले चुके थे; मैं भी तो बदल गया हूँ. 2 गज की
दूरी के कारण किसी के नजदीक फटक नहीं सकते, यह भी नहीं पूछ सकते कि आप वो तो नहीं.
एक दिन मैं ने हिम्मत की. एक फौजी-से लगते सरदार जी को अभिवादन करते उनकी और मुड़े
तो महानुभाव और दो मीटर पीछे हंट गये.हम तो पहले ही दो मीटर पर थे, अब तो चिल्ला कर
बात करने के आलावा और कोई चारा न था. खैर, परिचय की औपचारिकता पूरी की. पता चला कि
सज्जन मेरे पुराने परिचित नहीं थे . इस वाकये के बाद मैंने फिर कभी किसी के नज़दीक
फटकने की कोशिश न की. करता भी कैसे. यहाँ के एक सज्जन ने यहाँ के बासिंदों की
whatsapp जमात पर अपनी खासी नाराजगी जाहिर की थी. महोदय की शिकायत थी कि टहलते
वक्त लोग-बाग़ उनके सामने आ जाते हैं. यह अनुचित था. श्रीमान् सेवानिवृत्त फौज़ी
अफ़सर है. इसलिये उन्होंने धमकी दी थी कि सड़क पर चलते अब वह अपने हैट के आगे छौ फीट का लम्बा डंडा लगबा
लेंगे जिससे लोग उनके सामने न आ सकें. मुझे नहीं
मालूम नहीं, उन्होंने किस प्रकार के हैट का अविष्कार किया है ! लेकिन, यह
सब, आगे जो होता गया उसके सामने, केवल मसखरी-जैसी थी.
लगा, एकाएक
शहर की हवा भोपाल-जैसी हो गयी है. भला
बच्चे कहाँ समझे ऐसी बात. हर दिन छौ से सात साल की तीन-चार लडकियाँ और एक-दो लड़के गार्ड की मनाही
की परवाह किये बिना हमारे सामने के मण्डप पर रोज आ जाते थे. लेकिन, आखिरकार उन्हें
भी गार्ड ने खदेड़ डाला. बच्चों के जान पर आफत जो थी ! फिर कोलोनी एकाएक सूनसान हो
चला. लोगों ने सुबह शाम की सैर बंद कर दी.
साफ़-सफाई कर्मचारी भी आधे हो गये. इलाका कन्टेनमेंट जोन में तब्दील हो गया. साग-सब्जी
के दूकान के पास बंदिशे शुरू हो गयी. राज्य और शहर से आती खबर तो दिल दहला देने
वाली थी. एक दिन में पैतालीस-पचास हज़ार नए रोगी. दिन भर में 500 से 700 मौतें. नए-नए
श्मशान भूमि के बन जाने के बाद भी अपने परिजन के दाह-संस्कार के लिए हमारे एक मित्र को प्रतीक्षामें सुबह से रात को
दस बज गये. तब कभी जाकर नम्बर आया. समाचार पत्र और टीवी में श्मशान भूमि में एक
साथ खुले तंदूर-जैसे एक साथ पचासों चिताएं अगर दहला देनेवाली थीं, तो बाद में जो
खबर आयी उससे विचलित हुए बिना नहीं रहा जा सकता है. दैनिक ‘हिन्दू’ समाचार पत्र
में एक साथ साढ़े आठ सौ अस्थिकलश की तस्वीर छपी थी. इन कलशों को जिस सम्मान के साथ
पंक्तिबद्ध और मालाओं के साथ रखा गया था जीवन काल में शायद उन नागरिकों को ऐसा
आदर-सम्मान नसीब नहीं हुआ होगा. समाचार था,
कि मृतकों के परिवारजन अस्थि-संचय के लिए नहीं आए. सरकार ने अस्थियों का सामूहिक विसर्जन किया. सचमें, लोग
आते भी कैसे ! शहर में लॉक-डाउन. गाड़ियाँ चलतीं नहीं. चिताएं लगातार जलती थीं. जलती
चिता से अस्थि कौन चुने. और चुने भी तो तब जब चिताएं बुझे. यहाँ तो इस विश्वव्यापी विपत्ति में चिताएं अहोरोत्र जल रहीं थी. किसी माँ
को केवल बेटे-बेटियों और पति ने कंधा दिया,
तो कहीं किसी को कंधा देनेवाला अपना मिला ही नहीं. परिवार उजड़ गये, बच्चे अनाथ हो
गये. अगर शुमार मौतों के मृतक के मृत्यु प्रमाण-पत्र में कारण के तौर पर कोरोना का
संकेत हुआ, तो सरकार की अनुग्र राशि मिलने की संभावना जीवित है. अन्यथा, वो भी
नहीं. हजारों लावारिश लाशें गंगा माँ की
गोद में इस राज्य से उस राज्य में बह गयीं. न मरनेवालों में उनकी शुमार हुयीं ,न
उनके परिजनों को अनुग्रह राशि मिलेगी. जो हजारों लाश गंगा के किनारे रेत में दफन
किये गये, लोगों ने उनकी कफन तक को नहीं छोड़ा. इस पर जो भी बंचा था, और जिस किसी
ने भी जुवान खोली, सरकार ने उसे भी उसकी जर-जमीन कुर्क करने की धमकी दे डाली. संवेदनहीनता
का ऐसा मिशाल इतिहास में शायद ही मिले. मगर, कहते हैं
इस शहर में वो कोई बारात
हो या वारदात,
अब
किसी भी बात पर खुलती नहीं है खिड़कियां
-
स्व. दुष्यंत कुमार
इतना ही नहीं, इस महामारी के वक्त
लोगों की मानसिकता और व्यवहार में भी आमूल परिवर्तन आ गया है ; यहाँ मैं चिन्ता और
अवसाद जैसे मनोरोग की बात नहीं कर रहा. बहरहाल, सावधानी और भय जैसे कुछ परिवर्तन को
तो समझा जा सकता है, किन्तु, लोगों का लोगों से भय समझ के बाहर हैं. लोग-बाग पड़ोसी
को फोन करने से कतराते हैं, एक दूसरे का हाल-चल पूछना तो दूर. पता नहीं कौन किस
सहायता की मांग कर दे. वैसे इस लॉक-डाउन में कौन किस की, क्या सहायता कर सकता है. पर
मैं देखता हूँ, कोलोनी के भीतर सब्जी की दूकान के आसपास बातचीत तो दूर, लोग एक दूसरे
को अभिवादन भी नहीं करते ! आखिर, क्या पता, लोग डरते हों, कहीं हमारी श्वास ही दूषित
न हो जाय, और बात करने से ही कोरोना का संक्रमण हो जाये !!
रोगी के परिजनों
द्वारा चिकित्साकर्मियों पर आक्रमण इस राष्ट्रीय विपदा का दूसरा काला चेहरा है. यह
बीमारी नयी नहीं है. लेकिन, समाज को सोचना होगा, इसका निराकरण क्या है. स्वास्थ्यकर्मियों
की सुरक्षा का भार सरकार पर तो है ही, पर समाज में एक दूसरे की सुरक्षा, नागरिकों का
एक दूसरे के प्रति सद्भाव पर टिका है.
दूसरी ओर, प्रति दिन
टीकाकरण की नई-नई सूचना आ रही है. किन्तु, टीकाकृत नागरिकों की संख्या भारत की कुल
संख्या का छोटा हिस्सा है. राष्ट्रीय पोलियो अभियान में सरकार का नारा था, ‘एक भी
बच्चा छूटने न पाए’. रेल स्टेशन, बस स्टैंड, एअरपोर्ट पर बच्चों को पोलियो की
बूँदें पिलाकर हमने पोलियो को हराया था. हम कोरोना जैसे जानलेवा रोग के लिए ऐसा
क्यों नहीं कर सकते थे ! इस प्रश्न का जवाब हमें ढूढ़ना पड़ेगा. सभी के लिए टीका
खरीदने का केन्द्र सरकार का निर्णय स्वागत-योग्य है. किन्तु, सरकारें महामारी अधिनियम
या राष्ट्रद्रोह अधिनियम जैसे कानून नागरिकों के प्रश्न पूछने के अधिकार नहीं छीन
सकते ! किन्तु, अभी हमारी प्राथमिकता जान बंचाने की है ! और वह भी एक ही बीमारी से
नहीं . अब एक और दूसरी महामारी- मुकोरमायकोसिस (mucormycosis)- से भी जान बंचाना है.
मेरा मानना है कि, अन्य
कारणों के अलावा कोर्टिकोस्टेरॉयड (Corticosteroid) के अंधाधुंध प्रयोग से मुकोरमायकोसिस का रोग एकाएक फैला है . विकसित देशों में चिकित्सा
पद्धति के विपरीत, भारत में हम लोग रोगों
के नियमबद्ध चिकित्सा प्रक्रिया के आदी नहीं हैं. हर चिकित्सक रोगों की चिकित्सा
अपने तरीके और ‘अनुभव’ के अनुसार करते हैं. कोरोना के बारे में चिकित्सा समुदाय का
अनुभव तो अवश्य सीमित है. फलतः, दुष्परिणाम
समय-समय पर सामने आता है. अगर यह भी माना जाय कि मुकोरमायकोसिस (mucormycosis) त्रुटिपूर्ण
चिकित्सा के कारण नहीं हुआ है, तब भी मुकोरमायकोसिस (mucormycosis) के रोगियों के चिकित्सा
रिकॉर्ड के निष्पक्ष जांच से इस रोग की एकाएक वृद्धि के कारणों का पता लगाया जा
सकता है. संभव है, शीघ्र ही वैज्ञानिक भारत में मुकोरमायकोसिस (mucormycosis) की संख्या में अचानक
वृद्धि के कारण की जड़ तक पहुंचें. यह आवश्यक है.
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