कश्मीर से कन्याकुमारी तक
द्वारका से इम्फाल तक
पड़े हैं कितने विग्रह
अपूज्य।
किसी को कहते नहीं
सपने में
मैं पड़ा हूं विस्मृत
अकेला, अपूज्य !
हमारे पूर्वजों ने
हर पत्थर
पेड़
नदियों,
पर्वतों में देखे थे
अपने इष्ट !
आज
आखें हमारी
अब देख नहीं पाती
अपने इष्ट,
इन्सानों में भी,
देखती नहीं प्रकृति में
अपने पूज्य।
क्योंकि,
अब हमें देव नहीं
दंभ चाहिए,
पड़ोसी नहीं,
प्रतिद्वंदी चाहिए,
जिससे
हमारी पुरुषार्थ,
पड़ोसी के हित से नहीं,
उसकी हानि से
करना है
प्रमाणित I
देवता का
नम्रता से नहीं,
दंभ से करना है
आवाहन ।
तभी तो,
नये युग में
बनाए हैं हमने
मनुष्य को
अपने
अहंकार का वाहन !
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