अवैध श्रमिकक आधुनिक अंतर्राष्ट्रीय व्यापार: एक भुक्तभोगीसँ साक्षात्कार
आधुनिक इतिहासकार लोकनिक मतें १९म शताब्दीक अमेरिकाक
पूंजीवादक विकासमे दास श्रमिकक प्रमुख योगदान
रहैक. ओ व्यापार घृणित आ मानवाधिकारक नितांत विरुद्ध छल. फलतः, दास श्रमिकक
व्यवस्थाक विरुद्ध १८३९ हि मे लंदनमे अभियान आरंभ भेल छल. कतेक बाधा आ प्रयासक पछाति विगत शताब्दीमे अंतर्राष्ट्रीय दासता
विरोधी संगठन (Anti-Slavery international )क संगठन भेल. ई संगठन दासता आ दासताक कारण मानव शोषणक विरुद्ध कार्य करैछ. तथापि, आइओ विश्वमे कोनो ने कोनो स्वरुपमे अंतर्राष्ट्रीय
स्तर पर श्रमिकक शोषण, देह व्यापार आ आ किशोरक वेच-विकिनक व्यापार जारी अछि. सामान्यतः
ई व्यापार हमरा लोकनिक आँखिक आगाँ नहि अबैछ. मुदा, गहिकी नजरिसँ देखने अपना आस-पास
वा दूरमे मानवक अवैध व्यापारसँ साक्षात्कार भइए जायत. हमरा गत २०२१क सितम्बर मासमें श्रमिकक
अंतर्राष्ट्रीय अवैध व्यापारक एक भुक्तभोगी युवक भेटलाह. ई वृत्तांत ओही भेंट पर
आधारित अछि.
हम विवाहक नोत पुरबा लेल टैक्सीसँ बंगलोरसँ
कडलूर (तमिलनाडु) जाइत रही. व्यापार पर कोविड महामारीक प्रभाव समाप्त नहि
भेल रहैक. अतः हमर टैक्सी-ड्राइवर युवक पार्ट-टाइम ड्राइवर रहथि. कैटरिंग
टेक्नोलॉजी मे डिप्लोमा ई युवक रोजगारक अभावमे लाखो आओर युवक जकाँ घर बैसल रहथि.
कहैत छैक,
बैसलसँ बेगार भला. अस्तु, जखन सवारी भेटनि, टैक्सी चला लैत छलाह.
ट्रेन, टैक्सी, बसमे सहयात्रीसँ परिचय करबा ले पर्याप्त समय भेटैछ. समय बितयबाक हेतु सेहो ई नीक.
गप्प–सप्पक बीच कतेक बेर अनेक नव गप्प भेटि जायत. हमहू ओहि दिन ड्राइवरसँ परिचय
पात कयल आ गप्प करय लगलहुँ. किन्तु, गप्प मे जं किछु नव होइक आ अहाँकें सूचना एकत्र करबाक हो,
तँ बाजी कम आ सुनी बेसी. बीच-बीच मे वक्ता कें उत्साहित
करियनि,
जाहिसँ गप्प चलैत रहैक. मुदा, एहि हेतु गप्पी संगबे चाही.
हमर ड्राइवर निर्विवाद अनुभवी रहथि. हुनका गप्प करब पसिन्न
रहनि, आ अंग्रेजी हिन्दी में नीक जकाँ व्यक्त करबा मे अपन भाव दक्ष छलाह. एहिसँ
बेसी चाही की.
दू दिनक यात्रामे समयक अभाव नहि. अस्तु, ओ खूब विस्तारसँ अपन अनुभव कहैत गेलाह. गप्पक विषय नव आ रुचिकर छल. किन्तु,
ई विषय तेहन छल जे सूचना पर सोझे विश्वास हयब कठिन छल.
आब गप्प सुनू. अथ ड्राइवर, श्री सिदप्पा, उवाच:
‘वर्ष २००३. हम नौकरी तकैत रही. मनोरथ छल,
विदेशमे नौकरी भेटय तँ आओर नीक. संयोगसँ तखने बंगलोरक
समाचार पत्रमे केरल केर एक कंपनीक विज्ञापन बहरायल रहैक. विज्ञापनमे कैटरिंग सुपरवाइजर
/ मेनेजर,
ड्राइवर, भनसिया, लेबर(श्रमिक)क रिक्ति बहराएल रहैक. इंटरव्यू आ बहाली भारतक
अनेक शहरमें हेबाक सूचना रहैक. संयोगसँ इंटरव्यूक एकटा केन्द्र बंगलोरहुमे रहैक.
हमरा सुविधा भेल. हम कैटरिंग सुपरवाइजरक पदक हेतु तुरत आवेदन पठा देलियैक. हमरा बंगलोरक एक पांच
सितारा होटलमे कैटरिंग सुपरवाइजरक रूप मे काज करबाक अनुभव छल. अस्तु,
इंटरव्यू भेलैक आ हमर चुनाव भए गेल. मुदा,
समय बेसी नहि रहैक. ओही हफ्तामे कुवैत जेबाक आदेश रहैक.
हमरा लोकनि तँ नीक आमदनीक लोभें ‘खाड़ी’ देशक नौकरीक हेतु मुँह बओनहि रही. जयबाक
खर्च भेटिते रहैक. बस विदा भए गेलहुँ. सोझे कुवैत.’
‘वाह! बढ़िया.’ – हम कहलियनि.
‘एखन सुनू ने.’ सिदप्पा
हमरा दूरेसँ हाथ देखबैत कहलनि आ पुनः शुरू भए गेलाह:
‘कुवैत पहुँचलहुँ. दोसरे दिन फेर आगूक यात्रा रहैक. मुदा,
अगिला यात्राक हमरा लोकनिकें कोनो अनुमान नहि छल. ओतय
पासपोर्ट जमा कय लेलक. दोसर हवाई जहाज पर सवार भेलहुँ आ सोझे इराक. आब अहाँ पूछब
कतय गेल रही तँ हम एतबे कहब: इराक. बड़का मरुभूमि. अमरीकी सेनाक छावनी. चौबीस घंटा
कड़ा पहरा. भीतर गेलहुँ. सबहक काज भीतरे रहैक. काज शुरू क’
देलहुँ. बाहर युद्ध छिड़ल रहैक; हरदमे गोलाबारीक आवाज सुनिऐक. हमरा संग भारतसँ आयल
बाँकी के कए कतय गेल, की जानि! बाहर कतहु जयबाक कोनो सवाल नहि. देश-दुनियासँ कोनो
संपर्क नहि. जे अंतय गेल, ककरा की भेलैक, कहब मोसकिल. डेढ़ बरख ओही जहलमे काज करैत दिन-राति बीति
गेल.’
‘तँ,
डेढ़ बरखक बाद बंगलोर आबि गेलहुँ ?’
सिदप्पा हँसय लगलाह. कहलनि: ‘ बंगलोर कतय ?
इराकसँ सोझे ऑस्ट्रेलिया ! ओतहु ओएह खेल. अमरीकी मिलिटरी छावनी.
घेराबंदी. सब किछु भीतर. ओतयसँ डेढ़ वर्षक
पछाति फेर कुवैत आपस. पछाति कुवैतसँ बंगलोर
आपस भेलहुँ.’ हमर
आश्चर्यक ठेकान नहि. मुदा, सिदप्पाकें उत्साहित करैत कहलियनि:
‘तखन तँ अहाँ तीन टा देश देखि लेल. अमेरीकी मिलिटरी सेहो
देखल.’ सिदप्पा
पुनः हँसय लगलाह: ‘ हम कुवैत छोड़ि कतहु नहि गेलहुँ !’
‘माने?’ ‘पासपोर्ट ठीकेदार लग छल. ओहि पर केवल बंगलोर, दिल्ली आ कुवैतक ठप्पा रहैक. आपस आबि इराक आ ऑस्ट्रेलिया
कहितियैक तँ गिरफ्तार नहि भए जैतहुँ ! हमरा कि कोनो वीसा छल,
कि नियुक्ति पत्र. ’
‘अच्छा?’
‘तखन की? पासपोर्ट पर कोनो लिखा-पढ़ी नहि. भारत सरकारक अनुमति नहि.
तखन हम सब भेलहुँ गैरकानूनी मजदूर. कतहु कोनो सुनवाइ नहि. जे मरिओ-खपि गेल रहितहु,
तं ओकरो कोन गिनती.’
‘टाका तँ कमएहुँ, ने?’
‘हं. आधा-छीधा! ठीकेदार अपन कमीशन तँ काटिए लैत छैक ने.’
‘आ अनुभवक सर्टिफिकेट? से तँ भेटल हएत ?’
‘अछि ने. कुवैत केर अमेरिकी छावनीक केटरिंग ठीकेदार सर्टिफिकेट देलक ने’ कहैत ओ
टैक्सीक डैशबोर्डसँ लैमिनेटेड कार्ड निकालि हमरा दिस बढ़ओलनि.
हमरा ओहि दिन सिदप्पाक गप्प जं पूर्णतः मनगढ़ंत नहिओ लागल तँ ओहि पर ओहि दिन
सोझे विश्वासो नहि भेल. आब अनेक मासक पछाति जखन अमिताभ घोषक उपरोक्त पोथी पढ़ि रहल
छी तँ आधुनिक दास-व्यापारक कटु सत्य आँखिक सोझाँ मूर्त भए रहल अछि. सैनिक अभियान
वा नागरिक आपूर्तिक हेतु वर्तमान युगक उपस्कर(logistic)क भंडारण आ वितरण आ एहि मे निहित ‘बंधुआ’ श्रमिकक संबंध मे २०२१मे प्रकाशित अपन पोथी
‘The Nutmeg’s
curse (Parables for a planet in crisis), मे लेखक अमिताभ घोष लिखैत छथि:
‘साधारणतया ‘logistic city’ पूर्णतः नियंत्रित श्रमिक बलसँ संचालित अत्यन्त सुरक्षित
वितरण केन्द्र थिक जकर माध्यमसँ विश्वव्यापारमे वा सैनिक अभियानमे उत्पादनक स्थान
आ उपभोक्ताक बीच माल-असबाबक निर्बाध यातायात सुनिश्चित कयल जाइछ.’
अस्तु, जहिना विश्व भरिमे नागरिक उपभोक्ता वस्तुक वितरणक हेतु अमेजन, आइकिआ, वालमार्ट, नेस्ले, आ टारगेट सन
बहुराष्ट्रीय व्यापारी संस्थाक वस्तु जातक वितरण हेतु विश्व स्तर पर माल-असबाब संकलन,
भंडारण आ वितरण कंपनी सब तत्पर अछि, तहिना सामरिक अभियानक हेतु सेहो विभिन्न पक्ष
अंतर्राष्ट्रीय अभियानक संचालन ले माल-असबाबक केन्द्र ( logistic centre )क
स्थापना करैत अछि. उदहारणक हेतु, ‘२००१ मे अफगानिस्तानमे अमरीकी आक्रमणक आरंभक तुरत बाद
अमेरिकी सेनाक हेतु आवश्यक वस्तुजातक आपूर्तिक हेतु दुबई मे माल असबाबक केन्द्र (logistic
city)
क स्थापना भेल छल. एहने logistic
city इराक केर बसरा नगर आ
अमेरिकाक ओकलैंड आ वैंकुओवर शहर मे सेहो अछि.’
एहि भंडारण-वितरण नगर सबमे श्रमिक
लोकनि अत्यंत कठिन सुरक्षाक बीच रहैत छथि. चूकि, एहि सब संगठन-भंडारण-वितरण (logistic hub)मे प्रवेशसँ पूर्व श्रमिक लोकनिके अनेक करार पर हस्ताक्षर
करय पड़ैत छनि, तें ओ लोकनि स्वेच्छया अपन अनेक मूलभूत अधिकारसँ समझौता तँ करिते छथि,
एतुका सब गतिविधि मानवाधिकार आ स्थानीय कानूनक अधिकारक
परिधिसँ बाहर होइछ. एहि तथ्यकें रेखंकित करैत लेखक अमिताभ घोष कहैत छथि: ‘ ई logistic
city वा hub
प्रथम दृष्टया भले भिन्न बुझाइत हो,
मुदा, थिक तँ ई बीतल युगक दास-किला, दास-व्यापार बंदरगाह आ कंपनी नगरे,
जकर स्थापना डच आ ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कंपनी ( अपन व्यापार
ले ) कयने छल.’[1]
अमिताभ घोषक एहि पोथी पढ़लाक पछाति हमरा ड्राइवर सिदप्पाक गप्प,
गप्प नहि यथार्थ थिक, से विश्वास भए गेल. हं, भारत इराकमे अमिरकी युद्ध (२००३-११) मे प्रत्यक्षतः सम्मिलित नहि भेल छल. मुदा,
अनाधिकार रूपें भारतीय बेरोजगार ठेकेदारक माध्यमसँ ‘खाड़ी-देश’
जाइत छलाह तकर आओर दू गोट प्रमाण समाचार पत्र ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ आ दिल्लीसँ
प्रकाशित अंग्रेजी दैनिक ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ मे प्रकाशित समाचारसँ भेटल जाहि मे
भारतक तत्कालीन विदेशमंत्री यशवंत सिंहसँ इराक मे फंसल भारतीय श्रमिक लोकनिक
उद्धारक हेतु अपीलक समाचार छपल छल. [2,3] संयोगवश सिदप्पा इराक वा ऑस्ट्रेलियामे कोनो प्रकारक
प्रताड़ना वा अमानवीय व्यवहारक गप्प नहि कहलनि. मुदा, जतेक वेतनक आश्वासन भेटल रहनि से तँ नहिए भेटलनि. ऊपरसँ
नियत अवधि धरिक सेवाक प्रतिबंध तँ भोगबे केलनि. रोजगार आ आर्थिक लाभक हेतु आर्त
लोक की ने सहि लैछ!
ततबे नहि, गत १७ अगस्त २०२२क ब्रिटेनक प्रमुख समाचार पत्र ‘द गार्डियन’ मे जॉर्ज मोनबियो
नामक लेखकक, एक दोसर प्रकारक प्रतिष्ठान- ब्रिटेन स्थित
स्पेशल इकनोमिक ज़ोन वा फ्रीपोर्ट (Free Port )क- संबंध मे एक विचार छपल अछि. एहि लेखमे मोनबियो लिखैत छथि,
‘वस्तुतः,
स्पेशल इकनोमिक ज़ोन वा फ्री-पोर्टक भीतरक कार्यकलाप सबसँ
एना प्रतीत होइछ जेना ई क्षेत्र सब देशक सीमा (आ कानूनसँ ) बाहर हो,
जेना मध्यकालीन इंग्लैंडक जंगली क्षेत्र सब छल,
जतय राजाक व्यक्तिगत अधिकार नागरिक अधिकारसँ ऊपर छल. एहि
लेख केर सारांशमे लेखक कहैत छथि: ‘ फ्रीपोर्ट संगठित अपराध,
काला धनक गोरखधंधा (money laundering), आ मादक द्रव्यक अवैध व्यापार (drug-trafficking) कें बढ़ावा दैछ. मुदा, एहि सबसँ देशकें न्यूनतम लाभ होइछ. परश्रय केवल पूंजीकें भेटैछ.[’4]
इएह थिक वर्तमान युगक पूँजीवादक नग्न सत्य.
एहि सबसँ एतबा तँ स्पष्ट अछि, दासता आ दास-व्यापार भले प्रतिबंधित भए गेल हो,
दास-किला, दास-व्यापार बंदरगाह आ कंपनी नगर प्रतिबंधित भए गेल हो,
किन्तु, भिन्न-भिन्न नामसँ, आ विकसित आ विकासशील देश मे कानूनक क्षत्रछाया मे एखनो
दास-व्यापार-सन गतिविधि जारी अछि, आ कानूनक आ मानवाधिकारक निरंतर हनन चलि रहल अछि.
नोट: गोपनीयताक निर्वाह ले व्यक्तिक नाम बदलि देल गेल अछि.
सन्दर्भ:
1. Ghosh
Amitabh. The Nutmeg’s curse (Parables for a planet in crisis) 2021. Penguin
Allen.
2.
George Monbiot. Welcome to the Freeport, where
turbocapitalism tramples over British democracy. The Guardian 17 August 2022.
3.
Indian workers escape from US army camp in Iraq .The Hindustan Times, New Delhi,
May 06, 2004.
4.
Rohde David: The struggle for Iraq: foreign labor; Indians Who Worked in Iraq
Complain of Exploitation. The New York Times. May 07, 2004.
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