Sunday, December 29, 2019

साहित्य आ शिष्टाचार


साहित्य आ शिष्टाचार

1979 सितम्बरमें साप्ताहिक ‘मिथिला मिहिर’में हमर  कथा पहिल बेर छपल छल. मोन अछि, कथाक प्रकाशनक एक मासक भीतर हमरा नामक बीस रुपैयाक मनीआर्डर ‘मिथिला मिहिर’ सं आयल छल. बीस रुपैया बहुत तं नहिं छलैक. मुदा, तहिया एक सौ टाकामें एक छात्रक हेतु लगभग मास भरिक  मेसकेर खर्च पूरा भ जाइत छलैक. तें, तहिया बीस रुपैयाक महत्व अजुका बीस रुपैया सं बेसी अवश्ये रहैक. तथापि,  ई बीस टाका मात्र एकटा  सौजन्य छल, मानदेय राशि (honorarium) छल, वा पारिश्रमिक छल से कहब कठिन. मुदा, हमरा दृष्टिमें ई एकटा शिष्टाचार अवश्य छल. ‘मिथिला-मिहिर’ तं कहिया ने इतिहास भ गेल आ ओकर संगहिं दीर्घजीवी मैथिली पत्रिकाक परंपरा सेहो समाप्त भ गेल. प्रायः, ‘मिथिला मिहिर’क अतिरिक्त आओर कोनो मैथिली पत्रिका लेखककें पारिश्रमिक वा मानदेय राशि दैत छल होइक से हमरा नहिं बूझल अछि. मुदा, एहि लेखमें हम अति संक्षेपमें  साहित्यमें विभिन्न स्तरपर शिष्टाचारपर विचार करय चाहैत छी. एहि विषयकें उदाहरण सं बेसी नीक-जकां  बूझल जा सकैछ. तथापि, हम एहि लेखमें व्यक्ति, आ व्यक्तिगत अनुभवकें अपन विचार सं दूर राखब.
वैज्ञानिक क्षेत्रमें लेखन आ प्रकाशन, व्यक्ति वा व्यक्ति-समूहक नव अनुसंधानक प्रकाशन, अपन क्षेत्रमें प्रतिष्ठा-अर्जन , आ पदोन्नतिले अनिवार्य बूझल जाइछ. तें, वैज्ञानिक लोकनि अपन लेखकेर बेसी सं बेसी प्रतिष्ठित पत्रिकामें प्रकाशनक सपना देखैत छथि. तथापि, लेखकलोकनि  अपन स्थान, अनुसन्धानक विधा, आ लेखककेर गुणवत्ताक अनुकूल पत्रिकाक चुनाव करैत छथि. मनिविकी सेहो एहि परंपराक अनुसरण करैछ. मुदा, कोनो लेखकेर प्रकाशनकेर पूर्व लेखमें  सुधारक हेतु लेखकेर लेखकलग एक वा अनेक बेर आपस आयब अस्वीकृति, स्वीकृति आ प्रकाशनक प्रक्रियाक सामान्य अंग थिकैक. तथापि, लेख सोझे स्वीकृत हो वा सोझे अस्वीकृत, अथवा सुधारक पछाति स्वीकृत हो, प्रत्येक परिस्थितिमें संपादक लेखककें पहुँचनामा अवश्य लिखैत छथिन, आभार अवश्य प्रदर्शित करैत छथिन. हमरा जनैत साहित्यकार-लेखक सेहो एतबा  आभार आ एतबा सौजन्य अधिकारी तं छथिए. कारण, प्रकाशन जं लेखक-कवि-कथाकार हेतु आवश्यक, तं, स्तरीय लेख सेहो पत्रिकाक अस्तित्वले अनिवार्य. तें, साहित्य- साहित्यकार  आ सम्पादक-प्रकाशक एक दोसराक पूरक थिकाह. अस्तु, हिनका लोकनिक बीच सौजन्य आ शिष्टाचार स्वस्थ साहित्यिक परम्परा आ सत्साहित्यक आधारशिला थिक.
इन्टरनेटक आविष्कारसं पूर्व प्रकाशनक क्षेत्रमें की परम्परा रहैक ? एक दृष्टि एहू पर. इन्टरनेटक आविष्कारसं पूर्व, ‘बिनु मांगल लेखकेर पहुँचनामा ज्ञापित नहिं हयत, आ अस्वीकृत लेख वापस चाही तं डाक-टिकट लागल लिफाफ अवश्य पठाबी’, एतबा सूचना पत्रिकाक संपादक लोकनि लेखककें अवश्य दैत रहथिन. हं, पत्र-पत्रिकामें लेखकेर प्रकाशन स्वयं स्वीकृतिक पर्याय छलैक. जं प्रकाशित नहिं भेल तं बुझू अहाँक लेख कूड़ादानमें चल गेल.तें,संपादक लेखककें औपचारिक स्वीकृति नहिं पठबैत रहथिन.  हं, निमंत्रित लेखकेर लेखक-साहित्यकारक प्रति वा वरिष्ठ लेखकक प्रति संपादक लोकनि पत्र द्वारा औपचारिक आभार प्रदर्शित करैत रहथिन कि नहिं से हम नहिं कहैत छी. आइ  इन्टरनेटक युगमें बहुतो गोटे सम्पर्क-संवादले  डाक-तार पर निर्भर नहिं छथि. पत्रोत्तर देब सुलभ आ मुफ्त भ चुकल छैक. अधिकतर संपर्क फ़ोन आ इन्टरनेटपर होइत छैक. तथापि, अनेक बेर लेखकेर हेतु पहुँचनामा तथा पत्रिकामें लेखकेर प्रकाशनक पछाति लेखककें पत्रिकाक लेखकीय प्रति देब तं दूर, सम्पादक लोकनि लेखककें आभारक एको शब्द धरि देब उचित नहिं बूझैत छथि. हमरा जनैत ई उचित नहिं.
आइ काल्हि बहुतो गोटे कहैत छथि, ‘ जे लिखैत छथि, सएह पढ़इत छथि’ . एकर दू टा अर्थ. एक, किछु लेखक केवल अपने टा लिखल लेख पढ़इत छथि. दोसर, केवल लेखक लोकनिए टा पाठक सेहो थिकाह. फलतः, परिचित, अपरिचित, नीक वा  बेजाय लिखनिहार सब गोटे अपन-अपन छ्पाओल पोथी मुफ्तमें बंटैत छथि. सेहो ठीक. मुदा, मुफ्त में आयल पोथीकें पढ़ब वा नहिं पढ़ब तं उपलब्ध सामग्रीक विषय-वस्तु, रूचि, आ लेखनक गुणपर  निर्भर छैक, मुदा, पोथीक पहुँचनामाक सूचना आ धन्यवाद तं शिष्टाचारक विषय थिक. आइ सं बीस वर्ष पूर्व सुपरिचित, प्रतिष्ठित लेखक लोकनि सेहो पोथीक पहुँचनामाक पोस्टकार्ड अवश्य लिखैत छलथिन. रचना नीक लगनि, तं उत्साहवर्धक शब्द सेहो अबैक. ई उत्सावर्धन नव-पुरान लेखकक लेखकीय ऊर्जाकें बढ़बइत छैक. आइ ओहि परम्परामें ह्रास भेल अछि. ई नीक वा बेजाय ताहि ले अहाँकें आइन्सटाइन-न्यूटन हयबाक आवश्यकता नहिं.स्वयं सोचिऔक.
साहित्यमें शिष्टाचारक अओरो अनेक आयाम छैक. हिंदीक एकटा नवोदित, किन्तु, सुपरिचित कवियित्री कहलनि, साहित्यिक गोष्ठीमें सब कलाकारकें ई प्रयास रहैत छनि जे सब सं पहिनहिं अपने कृतिक पाठ करी आ तकर पछाति, जल्दी सं समोसा-जिलेबी खाइ आ तुरत विदा भ जाइ. माने, अपन विवाह भेल, शुद्ध बीति गेल’.  कार्यक्रमक आरम्भ आ अंतमें उपस्थित साहित्यकार लोकनिक संख्यासं एकर अनुमान स्वतः भ जायत. इहो व्यवहार जएह लिखैत छथि, सएह पढ़इत छथि, ओही प्रवृत्तिक द्योतक थिक. एकर अतिरिक्त, पत्रिकाक स्तरक अनुकूल प्राप्त लेखकेर गुणवत्ताक आधारपर चुनावक आ ओकरा सबके छपबाक क्रम निर्धारण संपादक केर अधिकार छियनि. किन्तु, नीको लेखकें दबाकय पाछू क देब  आ बेजायो के आगू बढ़ा देबाक प्रवृत्ति साहित्यिक शिष्टाचारक विपर्ययक लक्षण थिक.    

2 comments:

  1. बहुत सही समीक्षा

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  2. बहुत सही और सार्थक समीक्षा

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अहाँक सम्मति चाही.Your valuable comments are welcome.

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