मैंने उनको
कभी साथ बैठकर हँसते-मुस्कराते नहीं देखा. देखता भी कैसे ? एक, उन्हें बैठने की फुरसत कहाँ थी ! दूसरी, मुस्कराने की न कोई सूरत थी और न
वजह. कमला नदी माता तो थी, पर मनमौज. खेती थी, तो कमर तोड़. साल भर का अनाज खेत में
पैदा हो गये तो ठीक. नहीं तो, आधा गाँव रात को भूखा ही सोता था. पर किसी को शिकायत
नहीं थी ; सब की हालत एक जैसी जो थी. छप्पर पर फूस हो और बारिस में घर न चूता हो, भर
पेट अन्न हो, पर्व-त्यौहार निबट जाए, और सामाजिक दायित्व
पूरा होता रहे तो लोग सुखी समझे जाते थे. अगर इतना कुछ हो तो घरों में झगड़ों
की वजह ही क्या है ! मगर ऐसा सुख कितनों को मयस्सर था गावों में उन दिनों. पर, परिवारों को टूटना लोगों ने सुना नहीं था, भले पति-पत्नी
साथ बैठ कर हँसते-मुस्कराते नहीं हों. शायद ऐसा विकल्प उन दिनों तक उस समाज में
लोग-बाग़ सोचते भी नहीं थे.
एक बार की
बात है. एक ही बरसात में कमला की बार-बार
की बाढ़ ने लगे हुए धान को बर-बार डुबा-गला दिया था. और खेप की रोपनी का न समय बंचा
था, न बीहन. फाकाकसी की नौबत थी. उस साल दूर किसी गाँव के किसी बड़े खेतिहर ने दीनानाथ
को धान कटबाने का काम दिया. दीनानाथ ने सोचा कि चलो अगर दस मन भी धान मिल जाए तो
साल निकल जाएगा. पर खुराक का धान क्या निकला, एक नयी आफत आ गयी. वहीं दूर के गाँव
में दीनानाथ बहुत जोर बीमार पड़े. आँखें पीली
हो गयीं थी. गोरे चमड़े का रंग पीला हो गया था. लोगों ने कहा कमला बीमारी है. पर
फ़िक्र की बात नहीं थी. उस गाँव में उस साल बहुतों को कमला रोग हुआ था, पर किसी की
मौत हुई ऐसा किसी ने सुना नहीं था . परेशानी थी तो बस एक : दीनानाथ बेहद कमजोर हो
गये थे, और उन्हें भूख बिलकुल नहीं लगती थी. उन्होंने किसी से कुछ पूछा नहीं. खुद
ही सुना था, पुनर्नवा से पीलिया/ कमला ठीक हो जाता है. तो फिर क्या था. तालाब के
भीड़ पर पुनर्नवा की क्या कमी थी. उनका टहलू, रामेश्वर, रोज एक मुट्ठी पुनर्नवा नोच
कर दीनानाथ के लिए लाता था, सिलबट्टा पर पीसता था और दीनानाथ उसे पानी में घोलकर ‘
जय धन्वन्तरि’ के साथ पी जाते थे. करीब दो महीने बाद जब पीलिया कम हो गया और धान
की दौनी पूरी हो गयी तो दीनानाथ गाँव वापस चले. फिर भी, जब दीनानाथ बैलगाड़ी पर धान
की बोरियां लेकर घर वापस लौटे तो उनकी हालत पैदल चलने की नहीं थी. बस, ख़ुशी इतनी
थी कि जब तक गेंहूं का फसल घर न आये, भुखमरी तो नहीं होगी. लेकिन, घर का मरम्मत, स्कूल
का फीस, नमक-तेल-मशाले का खर्च तो चाहिये था.घर के मरम्मत के लिए कमला के किनारे
से कास के चंद बोझ मिल गये. बाँस तो अपनी ही
बंसबिट्टी से काट लिया. संयोग से,
पाचू पासवान के पास उनकी एक बछिया पोसिया लगी थी. उसे दोनों मिलकर जटमलपुर के मेले
में बेच आए, तो हिस्से में कोई सौ रूपये आने से नकदी की आफियत हुई थी. यह सभी
दीनानाथ को याद है. उन्हें यह भी याद है कि एकबार उनके पढ़ने की ऐनक गुम हो गयी. हर
जगह ढूंढा. कहीं नहीं मिला. अचानक उनके मन में एक बात आयी. हो न हो, ऐनक कहीं कुंए
में तो नहीं गिर गयी. चमड़े की खोल में रखी
ऐनक अक्सर कुर्ते के ऊपरी जेब में
होती थी. क्या पता, कुंए से डोल से पानी खींचते वक्त, खोल सहित चश्मा फिसल कर कुंए
में तो नहीं गिर गया ! बस क्या था, दीनानाथ ने चश्मे को ढूंढ निकालने की ठान ली. आस
पास के लड़के-जवान कुंआ के पास हरिदास के
आँगन से बाँस की सीढ़ी और रस्सा ले आये. और ऐनक को पानी से निकालने, रस्से और सीढ़ी
के सहारे दीनानाथ कुंए में उतर गये. बाद में उनकी ऐनक सन्दूक पर पड़े एक बक्से के
पीछे मिली यह और बात थी. पर दीनानाथ किसी पर नाराज नहीं हुए. बच्चों की पिटाई नहीं
हुई. ऐनक मिल जो गया. अब दरभंगा जाने का खर्च, परेशानी और जहमत से जो बंच गये थे.
उन
बातों को अरसा बीत गया. दीनानाथ आज कल मुंबई में हैं. छोटे बेटे और बहू के आग्रह पर कुछ दिन के लिए मिज़ाजपुर्शी
के लिए मुंबई आए हैं. वैसे तो दीनानाथ की नजर में इस महानगर में असुविधा ज्यादा और सुविधा कम है, लेकिन
उनकी जरूरतें इतनी कम है कि उन्हें असुविधा क्यों कर होने लगी. उनके तरह के गाँव
में रहनेवालों के शब्दकोष में असुविधा की जगह नहीं है ! पढ़ने को हिन्दी समाचार पत्र, पत्र-पत्रिकाएं और
किताबें मोहल्ले के कोने पर मिल जातीं हैं. पान-सुपाड़ी-तमाखू की कभी आदत डाली
नहीं. मिथिलाकें गांवों में उनके जवानी के ज़माने भांग खूब चलता था. पर दीनानाथ को इस घास
ने कभी आकर्षित नहीं किया. कहते थे, इस गाँव में जिनके पास अपने खेत और पेड़ नहीं
हैं उन्हें भी खाने के लिए आम-जामुन-अमरुद- गन्ना की कमी नहीं होती. गर्मियों में ताड़कून
खाईये, अगहन में सिंघाड़ा खाईए. यहाँ खाने की चीज की कमी है क्या, जो लोग मवेशी के
तरह घास खाय, चिमनी के तरह धुआँ छोड़े. और ताड़ी ? ताड़ी तो आदमी को ताड़ पर चढ़ा कर
सीधा नीचे गिरा देता है; अपनी और बांकी सबों की नजर में.
लेकिन, मुबई
आकर दीनानाथ चकित हैं . अभी तक उन्होंने अपने बेटे और बहू को साथ हँसते मुस्कराते नहीं देखा है . सोचते हैं, वक्त को क्या हो गया है ! लोग बातें
करते हैं तो सिर्फ काम की, या दाम की. मुँह खोलते हैं तो बातें निरी बातें होतीं
हैं. सुबह बारह बजे होता. तब तक अट्टालिकाओं के बीच सूरज कहीं दीखता नहीं, धूप भले
हर जगह हो. ना आफिस जाने की ज़ल्दी ना बच्चे को स्कूल भेजने की तरद्दुद. यहाँ तो
बच्चा है ही नहीं. जहां बच्चे हैं , बेचारे बच्चे भी दोस्तों की कमी के कारण बिलबिलाते
रहते हैं. पर वह दीगर बात है. दीनानाथ जिस इमारत में हैं, उस पन्द्रह मंजिली ईमारत
में दर्ज़नों परिवार और सैकड़ों लोग हैं. लेकिन न कोई किसी का पड़ोसी है, और न अपने
घर के बाहर किसी का कोई चाचा-भतीजा, भाई-बहन, और ना कोई दादाजी-दादी. सभी कबूतरखानों
में बंद, अपने ही काम में ज़ब्द हैं, अपने तनाव में कैद हैं. ऐसा क्या है इस वक्त
में, इस शहर में कि मुस्कराहट नदारद है ! सब केवल भाग रहें हैं, जिंदगी गुज़र रही
है, वक्त कट रहा है.
दीनानाथ अपने
घर में देखते हैं, शाम होते ही बेटा-बहू
काम में लग जाते हैं. कहतें हैं, उन्हें भारत के दिन-रात से नहीं, अमेरिका के
सूर्योदय-सूर्यास्त को देखकर उठना और सोना होता है . दीनानाथ सोचते है, ये बच्चे पैसे
भरपूर कमाते हैं. मुंबई में जहां लाखों लोग फुटपाथ पर सोते हैं उनके बेटे-बहू के
पास चार कमरे है. कारें हैं. घर में वह सब कुछ है जो दीनानाथ ने कभी सिनेमा में
समृद्ध लोगों के घर में देखा था. पर एक ही चीज नहीं है, खुशियाँ. दीनानाथ अचम्भे
में हैं ; सारी समृद्धि हैं, पर खुशियाँ नदारद ! मुस्कराहट की कमी दीनानाथ को नहीं खलती
हैं, लेकिन, सोचते है, अगर घर में सुख-शान्ति और आराम का माहौल न हो तो लोग आफियत
की सांस कहाँ लेंगे ? आदमी थक कर आराम कहाँ करेगा ? प्यार से जो मिजाज़पुर्शी होती
है, वह कहाँ से आयेगा ? बच्चे कहाँ पनपेंगे, कहाँ पलेंगें. बच्चों के लिए घर तो
ऐसा अभयारण्य है जहाँ चारों और शान्ति होनी चाहिये. और अगर यह सब होगा ही नहीं तो
बसेरा और घोंसला किस काम के लिए है ? दीनानाथ की उम्र में आसमान में तूफ़ान के
संकेत और परिवार में पनपता तनाव को सूंघने में वक्त नहीं लगता. उन्हें बेटे-बहू से
कभी पूछने का मन करता है, बच्चे इस शहर में मुस्कराहट कहाँ बिकता है ? मैं अपने बंचे-खुचे
पैसे से थोड़े मुस्कराहट खरीद कर ले आता हूँ. तुम लोग कुछ दिन उसे शरबत में मिला कर
पियो, सेहत सुधार जायेगी ! मगर, दीनानाथ गंवई हैं, गंवार नहीं. वृद्ध है, बेवक़ूफ़ नहीं
!! बरसों से सुनते आये हैं, सांई-बहू का झगड़ा, पंच बने लबड़ा ! यानी, सांई-बहू के झगड़ा में जो बीच में पड़ा वह या तो लबड़ा है, या वह आखिरकार लबड़ा
कहलायगा !! इसलिए, चुपचाप अपना समय बिताते हैं. पर अब दीनानाथ को अब समय भारी लगने
लगा है.
इसलिए,आखिरकार
एक दिन दीनानाथ ने कहा, बेटे मेरा टिकट कटबा दो. बेटा और बहू दोनों उनकी ओर देखने
लगे. इससे पहले कि बेटा और बहू पूछें, ‘बाबूजी जी कोई दिक्कत हुई क्या ? ’, दीनानाथ
ने उनके सवाल का जवाब खुद ही दे दिया: बेटे मुझे गाँव के चौक के पास के उलुवा पाकड़
पेड़ के नीचे बैठे बहुत दिन हो गये. वहाँ के ठहाके थकन की गांठें खोल देते है, पाचन
बढ़ा देती है. मुझे उलुवा पाकड़ की याद आ रही है !
दीनानाथ की बातें
सुनकर बहू-बेटे हंसने लगे; याद और पाकड़ के पेड़ की ! बेटा, जयवीर ने कहा, बाबूजी कुछ
दिन और रह कर शरीर को आराम दे दीजिये. आप गाँव में बैठने से तो रहे. यहाँ आराम से सेहत
सुधर जायगी.
दीनानाथ
मुस्कराने लगे. बोले, बेटे इस शहर में सब कुछ है, मुस्कराहटें नहीं हैं. इस शहर
में मुस्कराहटों का अकाल है. मुस्कराहटों में अजीब की तासीर होती है, मुझे अपने
लोगों के साथ खुलकर हँसे बहुत दिन हो गये. और दीनानाथ अगले हफ्ते ही कर्णपुर लौट
आये .
A harsh and complex reality so lucidly explained.
ReplyDeleteMany thanks for your encouragement.
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