यादों
का सिलसिला: मेरा गाँव और ‘सेंट बोरिस’ एकेडेमी
हमारे
अभावग्रस्त बचपन में भी एक अनोखा ऐश्वर्य था. अभाव ने जो सीमा रेखाएँ खींची थी, उसके
बाहर जाने की भी अनेक स्वतंत्रताएँ थी. आज के एकल सन्तान और दोहरे आमदनी में वह
स्वतंत्रता और ऐश्वर्य का अनुभव शायद आज के शहरी जीवन में संभव नहीं.
कितने बच्चों
ने लगा पायेंगे आम की डाली पर झूले. कितने बच्चे आम के बगीचों में पके आम चुन पायेंगे.
गांवों में बगीचे तो हैं ही. केवल बच्चे नदारद है !! कितनो ने गांवों के कमलदह में
लगायी होगी डुबकी. कितनों ने चुने होंगे कुमुदिनी के फूल, खाए होंगें ताजे सिंघाड़े.
कितनी लड़कियों ने हरसिंगार के फूल की सूखी डंटी में रंगी होंगी चोलियाँ. कितने ने
खेले होंगे झिलहर सेमल की लकड़ी की नाव में.
हमारे घर के
परिसर में कौन से फल नहीं थे: आम, अमरुद, नींबू, जामुन, फालसे, शीताफल, शरीफा, फालसा,
शहतूत, बड़हड़, आंवला, टाभ नींबू( grape fruit); सभी का भरमार था.
लगे हाथ आज मैं ग्राम्य जीवन की कुछ सखी, कुछ
सखा, कुछ गलियाँ, कुछ तालाब, और नदियों को याद करता हूँ. पर, पहले कुछ स्वतंत्रता
की बातें : पीपल के नीचे का स्कूल. मैं उसे बोधि-वृक्ष कहता हूँ. चारों तरफ अनेक
प्रकार के फूलों के ऐसे पेड़ लगे थे जो साल भर और सालों-साल खिलते हैं, जैसे, उड़हुल,
पीला कनेर,करबीर, गुलेंच, जूही, बेली, कटहरिया, टगड़, रात की रानी, और हरसिंगार. स्कूल
के नजदीक ही दो पोखर थे. एक कुआँ था. भुतही होने के कारण एक पोखर में बच्चे नहीं
जाते थे. दूसरे में मखाने की खेती के कारण घाट के आगे जाना मुश्किल था. इस सब के
आगे. परिसर के तीन तरफ आम के बगीचे थे. और बगीचों के बाहर दूर-दूर तक फैले धान के
खेत. न जाने कमला-कोसी के इस इलाके में सालों भर किस-किस प्रकार के पक्षी आते थे.
लहराता आँचल |
हमारा बोधि-वृक्ष |
स्कूल के पास
ही लक्ष्मीनारायण का मन्दिर था. या यूं कहिए मन्दिर के परिसर के जिस चबूतरे पर
विशाल पीपल का पेड़ था, उसी की छाया का क्षेत्र स्कूल था. नजदीक ही संस्कृत पाठशाला
था. मास्टर साहब बेंच पर बैठते थे और चटिया माने छात्र, जमीन, बोरी और चटाई पर. ऐसा
स्कूल जिसमे बच्चे बोरी पर बैठें, सुनते हैं उसे ही ‘सेंट बोरिस’ एकेडेमी कहा जाता
है, ऐसा विलायत में बसे किसी विद्वान् ने कहा था. इसलिए, हम लोग सेंट बोरिस के ‘अलुमनस’
हैं ! इसी सेंट बोरिस के परिसर में सालों-साल रामलीला भी हुआ करती थी. इसलिए, राम-लक्ष्मण-हनुमान
के साथ सीता और मंथरा से भी हमारा करीबी रिश्ता था.
हमारे स्कूल
में सौ से कम ही बच्चे थे, जिसमे कोई पन्द्रह-बीस मौलवी साहब- मोहम्मद युनुस- के
शागिर्द भी थे. वे उर्दू पढ़नेवाले बच्चे वहां पढ़ते थे जरूर, हमारी पहचान थी, पर
हमारे साथ उनका मेल-जोल, खेलना बिलकुल ही नहीं होता था. पर, उन्हें इससे कोई कमी
कभी महशूस हुई होगी, ऐसा लगता नहीं था. वे सभी नजदीक के एक ही गांव से आते थे, एक
साथ खेलते थे, और एक साथ वापस जाते थे. पर मौलवी साहब हमारा खयाल जरूर रखते थे.
उनका दबदबा, और गाँव में इज्जत भी थी. गाँव में 1961 की मर्दुमसुमारी- जनगणना- उन्होंने
ने ही की थी.
अब अपनों की कुछ
बातें . सबसे पहले मेरे-अपने: मेरी बड़ी (लाल) बहन, स्व. शीला देवी. वह मेरी बहन, सहपाठी
और स्कूल के भीतर मेरी गार्जियन भी थीं. उस जमाने में जब सहोदरों की संख्या सीमित
नहीं थी, भाइयों के उपनाम कुछ इस तरह होते थे- बड़का भाई, छोटका भाई, लाल भाई, नुनू
भाई, पढ़ुआ भाई, आदि. चाचा भी ऐसे ही होते थे, करिया काका, लाल काका, नित्तो काका
और खलीफ़ा काका, पंडित काका, आदि. लाल बहिन मेरे से कोई तीन साल बड़ी होंगी, पर,
दुर्भाग्यवश, आज से चौवालीस साल पहले आग में ऐसी जलीं कि चौबीस घंटे के भीतर
मिट्टी में मिल गयी. उन दिनों लडकियों की ससुराल में आग लगने की बीमारी आम थी. पर,
वह गुज़री भले तब हों, पर वह मेरे साथ तो आजन्म रहेंगी. सपने में अभी भी आती है, बातें
कह जातीं हैं. वह मेरे साथ की निरंतर
गार्जियन थीं. ‘माय के कहि देबैक’ केवल उनका ऐसा कहना मुझे तुरत रास्ते पर ले आता
था ! पर सपने में जब उनका मुरझाया चेहरा देखता हूँ तो आज भी मेरी आँखें गीली हो
जातीं हैं ! कब तक सुकुमार लड़कियाँ आग में इस तरह जलती रहेंगी !
लाल बहिन की सखियाँ
मेरी भी सखियाँ थी. हम दोनों एक क्लास में जो थे. राम दाई, ठकनी (प्रभा कुमारी),मिथिलेश,
बुलबुल,माधुरी, रेणु के नाम अभी भी स्मृति पटल पर वर्तमान हैं. जो जीवित होंगी अब
वे भी बूढ़ी दादी-नानी हो चुकी होंगी. आज भी जब मैं अपने गाँव जाता हूँ, उनसे मिलने
का मन होता है, पर मिलेंगी कहाँ ? लड़कियाँ परायी जो होतीं हैं ! हमारा गाँव केरल
में होता तो शायद वो अपने जन्म के गाँव में होती ! और शायद मैं ही दूसरे गाँव चला
गया होता !!
हाँ, तो मेरी
लाल बहन- शीला. वह बड़ी-छोटी छः बहनों में स्कूल जानेवाली पहली और अंतिम थी. यदयपि,
मेरे पिता के अपने और चचेरे आठ भाइयों के परिवार में लगभग सभी महिलायें साक्षर थी.
अब गाँव के अद्भुत
अनुभव की बातें करें: तो बताइए, उन दिनों हम में से किसी के गाँव में हवाई जहाज
उतरा था ? नहीं न ! मेरे गाँव के नजदीक पोखरभिंडा के फुटबौल फिल्ड में उन दिनों एक
हवाई जहाज उतरा था ! साल शायद सन 1961 या 62 ई. पता नहीं, बेचारा पायलट रास्ता खो बैठा, या जहाज
बीमार हो गया था. या उसकी टंकी में तेल ख़त्म हो गया था. पर उतरा तो, गाँववालों ने
हवाई जहाज नजदीक से देखा तो. हाँ, उस दिन बारिस जरूर हो रही थी. इसलिए, स्कूल में
पढ़ना लिखना भी मुश्किल ही था. सो मास्टर साहब ने किसी को पोखरभिंडा जाने से रोका
नहीं, और हम सबों ने केवल हवाई जहाज को देखा नहीं, हवाई जहाज को छुआ भी था ! हवाई
जहाज के चलाने वाले आस पास ही खड़े थे. उन्हें क्या कहते थे, उन दिनों मुझे तो पता
नहीं था. आज किसी सेंट-कान्वेंट का कोई बच्चा बताए तो, क्या वह स्कूल की चाहर
दीवारी के बाहर जा सकता है ? गांव में हवाई जहाज छू सकता है ! यही थी वहाँ की
स्वतंत्रता और वहां के अभाव के जीवन का ऐश्वर्य.
क्षमा करें, वर्तनी की कुछ अशुद्धियाँ रह गयी है. यह मेरा दोष है.
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