Wednesday, February 2, 2022

एक अविस्मरणीय घटना

 

                                                            एक अविस्मरणीय घटना

भारतीय सेना में यह कहावत आम है: ‘जब खाने का मौका मिले खा लो, जब मौका मिले सो लो. क्या पता परिस्थिति कब एकाएक बदल जाए. इसके अतिरिक्त, नौकरी के कई और गुर लोग धीरे-धीरे नौकरी के दौरान सीखते थे. इस में से एक यह भी था कि जब छुट्टी मिले, भाग लो. क्योंकि सेना में यह कहावत आम था कि छुट्टी एक सुविधा है, अधिकार नहीं. इसलिए, सुविधा मिली तो भोग लो ! और उन दिनों इस सुविधा को भोगने के लिए फौजी हर जहमत उठाने को तैयार होते हैं. कारण, छुट्टी मिल भी गई तो क्या ? जरूरत होने पर घर से वापस भी बुलाया जा सकता है, और बुलाया जाता है. पर मैं जिस छुट्टी की बात कर रहा हूँ वह यादगार छुट्टी थी ! क्यों ? वही तो इस वाकये के अविस्मरणीय  होने का कारण है !

जून या जुलाई का महीना, 1984 ई. मैं उस समय आसाम के एक दूरस्थ इलाके में, दूमदूमा टाउन नामक स्थान में पदस्थापित था. निर्धारित ‘लीव-प्लान’ के  मुताबिक मैं दो महीने की वार्षिक छुट्टी पर जाने को तैयार था. वैसे भी घर जाने के लिए कौन सी तैयारी चाहिए ! केवल, डाक्टर का ‘रिलीफ’- यानी मेरी जगह पर दूसरे मेडिकल ऑफिसर- को समय से पहुँचना आवश्यक था. और मेरे ‘रिलीफ’ मेरी छुट्टी के दो महीनों के लिए वहाँ पहुँच चुके थे.

 परन्तु, मेरी छुट्टी आरम्भ होने के ठीक पहले एकाएक ब्रह्मपुत्र में भीषण बाढ़ आ गयी. बाढ़ ऐसी थी कि गुवाहाटी और न्यू बोगाइगाँव के बीच सैकड़ों किलोमीटर दूर तक रेल लाइन बह गयी थी. फिर भी, दूमदूमा टाउन और गुवाहाटी के बीच रेल यातायात जारी था. सो मैं चल पड़ा और गुवाहाटी तक पहुंचा. उन दिनों दूमदूमा से दरभंगा पहुँचने में तीन रात,तीन दिन लगते थे ! गुवाहाटी के आगे रेल यातायात बंद था. बहरहाल, ब्रह्मपुत्र पार करने के लिए करीब डेढ़ सौ किलोमीटर की सड़क यात्रा के बाद नाव से नदी पार करने विकल्प था. ब्रह्मपुत्र पार कर आगे फिर न्यू बोगाइगाँव तक पचास-पचपन किलोमीटर की सड़क यात्रा, और फिर पटना की रेल यात्रा.

आम अनुभव  है, जब भी कोई आफत आसमानी आती है, प्रभावित लोग उससे जूझते हैं. किन्तु, अवसर की ताक में बैठे लोग उस प्रतिकूल अवसर में भी अपने लिए लाभ का अवसर ढूंढ लेते है; किसे याद नहीं होगा बिहार के बदला घाट की रेल दुर्घटना. उस दुर्घटना में करीब आठ सौ यात्री के साथ सवारी गाड़ी बागमती में गिर गयी थी. किन्तु, ऐसी आकस्मिक त्रासदी में भी जिन्दा बचे यात्रियों के साथ लूटपाट की घटना हुई थी. बहरहाल, मैं गुवाहाटी से गोआलपारा की यात्रा के लिए गुवाहाटी में बस में सीट लूटनेवाले रंगदार को दस रुपये दिए और खिड़की के पास की  एक सीट को अपने लिए रिज़र्व कर सीट पर बैठ गया.

चित्र 1 : ब्रह्मपुत्र  तिब्बत से बांगला देश तक 

             अब हम असम राज्य के  नक़्शे पर नजर घुमाएँ. [ चित्र 1 ] आप देखेंगे कि तिब्बत से आती हुई ब्रह्मपुत्र भारत में प्रवेश करने के पहले अरुणाचल पहाड़ों के ऊपर से गुजरती है. फिर, पहाड़ की उचांई से सियांग और दिहांग नदी के नाम से उतरने के बाद, इसमें दिबांग और लोहित नदियाँ मिलतीं हैं. लोहित नदी के मिलने के बाद असम के सदिया नामक स्थान से इसे ब्रह्मपुत्र के नाम से जाना जाता है. सदिया से बंगाल की खाड़ी तक की ब्रह्मपुत्र की करीब नौ सौ मील लम्बी यात्रा में हिमालय से उतरती हुई आधा दर्ज़न से अधिक नदियाँ इसमें मिलती जातीं है. फलतः, पूरे असम में पूरब से पश्चिम तक बहती  ब्रह्मपुत्र, राज्य को लगभग बीचोबीच उत्तर एवं दक्षिणी भागों में विभक्त कर देती है.  पूरे राज्य से होकर बहती इतनी लम्बी नदी को पार करने के लिए उन दिनों एकमात्र रेल-पुल गौहाटी में पांडुघाट और अमीनगाँव के बीच था ! बाढ़ के कारण उस समय उस इलाके से रेल यातायात बंद था.

चित्र 2 : ब्रह्मपुत्र असम से बंगाल तक 

अस्तु, हमलोग बस से सीधा करीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर गोआलपारा को चले. गोआलपारा में नाव से ब्रह्मपुत्र पार कर बड़े रेल जंक्शन न्यू बोंगाईगाँव पहुँचकर ट्रेन पकड़ना था. इसलिए, पहले गोआलपारा और न्यू बोंगाईगाँव के बीच की पचास किलोमीटर से दूर की यात्रा हमने ट्रक पर तय की. न्यू बोंगाईगाँव के आगे बंगाल और बिहार में रेल यातायात चालू था.

उस दिन जब हम न्यू बोंगाईगाँव रेलवे स्टेशन पहुंचे, शाम का कोई चार बज रहा होगा. खुशी की बात थी कि दिल्ली की ओर जानेवाली तिनसुकिया मेल न्यू बोंगाईगाँव रेलवे स्टेशन पर आगे जाने को तैयार खड़ी थी. अर्थात् जो तिनसुकिया मेल गौहाटी से दिल्ली के लिए चलती, अब बाढ़ के कारण न्यू बोंगाईगाँव से चल रही थी. बाढ़ हमारे पीछे छूट चुकी थी. किन्तु, रेल यातायात तब भी बिलकुल अस्तव्यस्त था. बाढ़ से पहले का टाइम-टेबुल अभी बेकार था.  सो, गाड़ी स्टेशन पर खड़ी थी. पर कब चलेगी, हमने इसकी कोई परवाह नहीं की. ट्रेन का मिलना काफी था. फलतः मैंने फर्स्ट क्लास की एक बोगी में अपना सूटकेस रखा, बर्थ पर अधिकार जमाया और खुश हो गए. अब टिकट की ज़रुरत थी. टिकट के लिए मुझे मिलिटरी वारंट दे कर टिकट लेना होगा. अस्तु, मैंने सहयात्री के जिम्मे सूटकेस को छोड़कर रेल ओवरब्रिज के उस पार मिलिटरी के एम सी ओ (Movement Control Officer ) के ऑफिस की ओर चल पड़ा. किसी कारणवश मुझे टिकट नहीं मिल सका और मुझे ट्रेन की तरफ आने लेने में कुछ वक्त लगा. पर जब मैं वापस प्लैटफॉर्म पर पहुँचा तो देखा कि गाड़ी जा रही थी ! मैंने किसी से पूछा, ‘ तिनसुकिया मेल ?’

उन्होंने जवाब दिया, ‘वो जा रही है !’ मेरी परिस्थिति कैसी हुई उसका अनुमान लगाना कठिन नहीं. दौड़ कर ट्रेन पकड़ना असंभव था.

उस समय सूर्यास्त हो चुका था. अँधेरा होने ही वाला था. मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था. मेरे पास रेलवे वारंट था. कुछ, सौ-दो सौ रुपये थे. पीने का पानी भरने के लिए  हाथ में प्लास्टिक का एक बोतल था. मैंने सोचा था, वापसी में पानी भर लूँगा.खाना तो साथ ही था. उन दिनों रेलवे स्टेशनों पर बोतल-बंद पीने का पानी बिकना शुरू नहीं हुआ था.

फिलहाल, इस विकट परिस्थिति से उबरने के लिए मैं तुरत स्टेशन मास्टर के पास जाकर अपनी समस्या सुनायी. उन्होंने कहा ‘ अगला स्टेशन कोकराझाड़ में तिनसुकिया मेल का केवल दो मिनट का स्टॉपेज है. अँधेरा हो चुका है. अभी कुछ करना असंभव है.’

मेरे पास अनेक समस्याएँ थी. उसमे घर तक जाना सब से छोटी समस्या थी. असली समस्या थी कि मैंने उस यात्रा में वह गलती की थी जिसके विरुद्ध फौजियों को हज़ार हिदायतें दी जाती हैं : अर्थात् अपना पहचान-पत्र हमेशा अपने साथ रखें ! पहचान-पत्र कभी भी सूटकेस और सामान में तो बिलकुल नहीं रखें. किन्तु, फौजियों के लिए पहचान-पत्र की सुरक्षा सर्वोपरि होती है. इसलिए, कई बार कानून का उल्लंघन हो जाता है.  और मैंने भी इसका उल्लंघन किया था. जाहिर है, पहचान-पत्र खोना दण्डनीय अपराध है. और जितना बड़ा ओहदा, दण्ड उतना ही सख्त. अर्थात् अफसर के मामले में कम से कम छौ महीने की वरीयता तो जायेगी ही ! यह सबसे बड़ा भय और अप्रतिष्ठा की बात थी. इससे अफसर, जो दूसरों के लिए उदहारण माना जाता है, लापरवाह सिद्ध होता है ! किन्तु, अभी कोई उपाय नहीं था.

बहरहाल, मैं अगली उपलब्ध गाड़ी से दरभंगा चल पड़ा और घर पहुंचा. नौकरी की शुरुआत के छौ महीने के भीतर ही पहचान-पत्र खोने की बात से माहौल मातमी हो गया था. सूटकेस में जो उपहार लेकर चला था, सब खो चुका था. मेरे सामान में वो खिलौने भी थे जो मैंने अपनी छोटी-सी बच्ची के लिए खरीदे थे. उसके अलावे सूटकेस में  पैक्ड डिनर, करीब हज़ार रुपये, अपने उपयोग के कपड़े, एक-दो बोतल व्हिस्की, मेरी डायरी, सब कुछ थे. किन्तु, मुझे चिंता केवल पहचान-पत्र की थी. वह सरकारी संपत्ति थी. सेना-सेवा की अवधि में प्रति माह उसकी विधिवत जांच होती है, और उसका रिकॉर्ड रखा जाता है. अभी सरकारी संपत्ति मेरे हाथों गम हो गयी थी. अतः, मैंने पुलिस स्टेशन जाकर एफ आई आर लिखबाया. उसकी प्रतिलिपि ली और डरते-डरते असम स्थित अपने यूनिट के कमान अधिकारी को चिट्ठी लिख डाली. वहाँ से जवाब आया; छुट्टी समाप्त होने के बाद वापस आयें.’ किन्तु, उससे मेरा भय समाप्त नहीं हुआ. यूनिट पहुँचने पर कोर्ट ऑफ़ इन्क्वायरी और आगे की फजीहत होनी ही थी. तथापि, तनाव में छुट्टी के तीन-चार दिन दरभंगा में गुजारने के बाद मैं अपने गाँव चला गया.

तीन-चार दिनों के बाद जब मैं गाँव से दरभंगा वापस आया तो मुझे देखते ही सभी मुस्कराने लगे. मैं तो अभी भी अवसाद में था. मुझे कुछ समझ में नहीं आया. बाद में बातें खुली. मेरा सूटकेस जो न्यू बोंगाईगाँव स्टेशन में तिनसुकिया मेल में छूट गया था वह, मय सामान, दरभंगा पहुँच चुका था !

यह अविश्वसनीय था !

हुआ ऐसा था कि मैंने किसी सहयात्री को बताया था कि मुझे पटना जाना था. मेरे सूटकेस पर लगे टैग से मेरा नाम और फौजी परिचय भी स्पष्ट था. अस्तु, पटना उतरनेवाले किसी मेहरबान सहयात्री ने मेरा सामान यह सोच कर उतार लिया था कि शायद वह पटना में ‘इस कैप्टेन के एन झा’ का कोई अता-पता लगा सकेंगे. हुआ भी ऐसा ही. पटना में उस व्यक्ति ने किसी कैप्टेन झा के गुमशुदा सामान की चर्चा हमारी पत्नी के चाचा जी से की. चाचा जी उस समय पटना में पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी थे. उन्होंने जब समान अपने पास मंगबाया तो सब कुछ आईने के तरह साफ़ हो गया; कैप्टेन झा साहब दामाद निकले ! उन्होंने ही हमारा सामान हमारे पास दरभंगा भेज दिया था ! जय हो !

मेरा सामान सुरक्षित मुझ तक पहुँचने से मनुष्य के स्वभाव के मूलभूत गुणों में मेरी आस्था दृढ़ हुई. मैं आज भी मनाता हूँ, दुनिया में बुरे के बनिस्बत अच्छे लोगों की संख्या ज्यादा है.

यह घटना अविस्मरणीय है. हाँ, इस वाकये के बाद मेरे अनेक बारमेरे  गुमशुदा सामान मेरे पास वापस आते रहे हैं ! पर वे बातें, फिर कभी !!

हाँ, उस दिन मेरे सामान आने की सबसे ज्यादा खुशी शायद मेरी बेटी सुष्मिता को हुई थी, कारण सूटकेस खुलने के बाद सबसे पहले उसमे से उसका लियो-टॉय का रंगीन ‘गन’ निकला था ! और उसे पुनः विश्वास हो गया कि  ‘दादू’ के पास ‘गन’ (जिसे वह उस समय ‘दन’ कहती थी) होता है !         

 

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अहाँक सम्मति चाही.Your valuable comments are welcome.

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