साधारण लोग, असाधारण विचार-२
साधारण लोगों की जीवनी नहीं लिखी जाती है. किन्तु, अनेक साधारण व्यक्ति की
साधारण छवि के किसी फलक में अचानक कोई असाधारण चमक दिख जाना आश्चर्यजनक नही. एक
शाम लाल काका में मुझे वही चमक दिखी थी. मुझे लगता है, जैसे सोने के किसी बहुमूल्य
आभूषण में उसका रंग, उसकी चमक, उस में जड़ा
हुआ पत्थर और उसकी आकृति, सब कुछ मिलकर उसे नायाब बनाता है, उसी तरह अलग-अलग
साधारण मनुष्य के चरित्र की छोटी-छोटी चमक का एकत्र संयोग किसी व्यक्ति को असाधारण
की संज्ञा देता है, उसे सर्वगुण सम्पन्न बनाता है.
लाल काका के मरे हुए तीन दशक से ज्यादा हो चुके हैं. उनमे ऐसा कौन सा गुण कि समाज
उन्हें याद रखे. उन्हें संतानों की कमी नहीं थी. इसलिए उन्होंने न कुआँ खुदबाया था,
न सड़कें बनबायी थी. उनके जो दोस्त थे, गुजर चुके है. उनके अपने बच्चे बूढ़े हो चुके
हैं. उनकी डीह पर घर है, पर जनशून्य, जैसा आज गाँव में कई लोगों के घर सूने पड़े हैं. खैर, उसे रहने
दीजिए. अभी लाल काका पर आयें.
चलिए, उनके नाम को क्यों छिपायें. लाल काका, माने घुरन झा. उनको जो जानते थे
उन्हें तान्त्रिक जी बुलाते थे. इतना तक कि उनके बड़े भाई भी जबतक उनसे नाराज न
हों, उन्हें तान्त्रिक जी ही बुलाते थे. इसका भी एक इतिहास था. वह अपनी जवानी के
दिनों, जब ब्रह्मपुत्र नदी पर एक भी पुल नहीं था, गाँव के अपने अन्य दो साथियों के
साथ तन्त्र सीखने के लिए कामरूप( कामाख्या) गये थे. उनके भाल पर त्रिपुण्ड चन्दन के
नीचे, भौंह के बीचोबीच बड़ा सा सिन्दूर का टीका, और त्रिकाल भांग के सेवन की आदत उन्ही
की देन थी. साक्षर थे; कठिनाई से गीता का हिन्दी अनुवाद पढ़ लेते थे. किन्तु, दिनचर्या
में इसके लिये वक्त निकालना उनके लिये आसान नहीं था. आप पूछेंगे, खेती-बारी
व्यवसाय में मसरूफ रहते होंगे. अजी साहब, छोड़िये. स्नान-ध्यान पूजा, दस बजे भोजन, भोजन
के बाद थोड़ा ‘लोट-पोट’ से अगर समय बचा तो ठीक, नहीं तो फिर शाम
के भांग की तैयारी के अलावे समय निकालना लाल काका के लिए कठिन ही था. हाँ, अपनी थोड़ी पुस्तैनी जमीन थी. कोसी
इलाके के बड़े खेतिहर के भलमानुस दामाद थे. लेकिन, अपने हाथों खेती करना तो दूर,
हाथ बटाना भी उन दिनों भलमानुसों के इज्ज़त के खिलाफ था. पर बुताद, रोग-बीमारी, सर-कुटुम्ब
और शादी-ब्याह मे कभी कोई बाधा नहीं हुई. अगर कभी कट्ठा दो कट्ठा ज़मीन इधर-उधर हो भी
गया तो फ़िक्र की कौन सी बात थी. यही राय उन लोगों की भी थी जो उनके यहाँ भांग-भुर्रा
के लिये जुटते थे.
खैर, फिलहाल मुद्दे पर आयें. तीन लडकियाँ, एक लड़का. बड़ी लड़की की शादी कब की हो
चुकी थी हमें कहाँ मालूम. हम तो पैदा भी नहीं हुए थी. दूसरी बेचारी एक दुर्घटना में बेमौत गुजर गयी थी. पर फिलहाल
हम उनकी आखिरी सन्तान, लड़के की शादी की बात करें. सबसे छोटे सन्तान, पुत्र की शादी
आते-आते लाल काका की माली हालत ऐसी हो चुकी थी कि वह कुछ भी खर्च करने के हालत में
नहीं थे. पर अपने ही एक ग्रामीण सज्जन का दवाब था. वह परिचित थे. प्रतिष्ठित और
सज्जन भी थे. उनकी कुआंरी कन्या की शादी का सवाल था. लाल काका इच्छुक थे. पर हाथ
खाली था. बहरहाल, शादी कए कई महीने पहले कन्यागत पन्द्रह सौ रुपये सहयोग का वादा
कर लाल काका की सहमति और वचन लेने में सफल हो गये.
वक्त बीतता गया. शादी का दिन नजदीक होता गया, पर कन्यागत वादा पूरा न कर सके. अंततः
शादी का दिन आ गया. आब क्या हो ? लाल काका कर्ज-उधार कर लड़के को शादी के लिये ले
जाने को तैयार थे. अभी तक उन्होंने एक भरोसेमंद ग्रामीण पर आस नहीं छोड़ी थी. इसलिए,
इंतज़ार में बैठे रहे. शादी का दिन. शाम हो गयी. कन्यागत का कोई नामोनिशान नहीं. आखिरकार
जब गाँव में दिये जलने शुरू हुए, किसी ने कहा फलाँ मिश्र सामने के आम के बगीचे में
आप का इंतज़ार कर रहे हैं. शादी का दिन, वह भी इस विवशता में उनका दरवाजे पर आना
संभव नहीं था. लाल काका कुछ लोगों के साथ बगीचे में गये. बेचारे मिश्र महाशय की
स्थिति देखनेवाली थी. लाल काका कुछ नहीं
बोले. लाल काका के साथ गये वहां उपस्थित कुछ युवक उत्तेजित थे. युवक लोगों ने लाल काका
को अलग ले जा कर कहा: फलाँ मिश्र ठकहारा हैं. बारात मत ले जाइये.
लाल काका धीरे बोलते थे. शान्त स्वभाव के थे. उन्होंने ने युवकों की ओर नज़र
उठाई. और शान्त भाव से बोले: 'मैंने वचन दे दिया था. लड़की की शादी है'.
पहिलुका लोक के बात अलग,सोच अलग🙏
ReplyDeleteसत्ये।
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