Wednesday, November 29, 2023

Hats off Keyhole Miners

 Hats off Keyhole Miners

Collapse of under construction tunnel in Uttarakhand could not have come at a worse time. While India was celebrating Diwali the disaster struck and celebration quickly turned into deep anguish. That the visual media prioritized World Cup Cricket and the Assembly Election over the disaster and rescue efforts is a reflection of times we live in. Rescue efforts continued unhindered nonetheless.

This was not the first disaster India has seen. Badalaghat accident in 1981 killed hundreds of passengers when the train carrying them plunged into Bagamati River. India’s worst mining disaster in 1975 in Chasnala in Dhanbad killed nearly 375 miners. Disasters in construction, mining, road and rail accidents are so frequent that citizens often look at the casualty figures only and forget. Yet what was different this time? Availability of NDRF (created in 2005) is one such asset. Even more important than that is the place of disaster, availability of multiple technical, technological and logistical resources. Yet the task was not easy is borne out of the fact that the rescue took good seventeen days! Only redeeming fact, and also the cause of celebration is that not 1 life was lost! That is a huge success. Thus, all those involved in the rescue efforts, including the political leadership deserve kudos. However, it is the keyhole miners who take the cake. Success of basic methods finally where everyone else failed to achieve breakthrough reminds me of the couplet of Rahim:

रहिमन देखि बड़ेन को लघु न दीजिए डार

जहाँ काम आवे सूई कहाँ करे तलवार

Along with everyone else the heroes, the Miners deserve not only National gratitude but also suitable reward in kind.

Sunday, November 26, 2023

छठि: साठिक दशकक मिथिलाक गाममे

 

छठि पूजा: साठिक दशकक मिथिलाक गाममे

छठि पूजा बाल्यकालक सबसँ पुरान स्मृति म सँ  एक अछि। स्मरणीय जे छठि पूजा आन अनेक पर्वसँ भिन्न होइक। मुदा, तहियाक पूजा अजुका पूजाक विपरीत शान्ति आ सादगीक वातावरण मे मनाओल जाइत रहैक। केहन होइक तहियाक छठि पूजा। की विशेषता रहैक। अजुका पूजासँ की भिन्नता रहैक। चलू अजुका हाईवेक द्रुत गति जीवनसँ  दूर स्मरणक खुरपेरिया पर; हरियर आरि-धूर आ बाध-बोनक छाहरिमे थोड़ेक दूर हमरा संग चलू। जतहि नीक नहि लागय, हाईवे पकड़ि लेब। हमहू नबका फोर-लेन पर आपस भए जायब।

छठि पूजा वैदिक पूजा नहि थिक। सूर्य नवग्रहमे प्रथम थिकाह। छठि माई सूर्य ‘भगवान’क माता थिकीह। किन्तु, छठि माईक शास्त्रीय आधार ताकब कठिन। मुदा, लोक स्मृति आ लोक आस्थामे छठि पूजा कहिआसँ बसल अछि, कहब कठिन। एतबा अवश्य जे छठि पर्व समाजक सब वर्गमे तँ मनाओले जाइत अछि, इहो सुनल अछि जे सत्तरि-अस्सी वर्ष पहिने किछु मुसलमान परिवार सब सेहो हिन्दू  पड़ोसीकें टाका दए अपना दिससँ छठिमे अर्घ्यक हेतु सूप-कोनिया आ ढाकनमे प्रसादक व्यवस्था करबैत रहथि, से हमर स्वर्गीय पिता कहने रहथि।

छठिमे बहुत नियम-निष्ठा। उपवास बहुत लम्बा। धारणा रहैक जे छठि परमेसरीक पूजा-पाठ प्रसादक निष्ठामे त्रुटि भेलासँ ओ तुरत तमसा जाइत रहथिन। लोककें अनिष्ट भए जाइक। तें, हाथ उठबासँ पूर्व धियापुता गलतीओसँ प्रसाद म सँ किछु मुँहमे नहि दियए। से पितामही- स्वर्गीया गंगावती देवी- सेहो कहथि। मुदा, छठि परमेश्वरीक कृपा पर लोककेँ ततेक आस्था रहैक जे किछु गोटे धीयापुताकेँ इहो कबुला कए देथिन जे 'पाँच बरख पाँच घर भीख मांगि छठिक डाली हाथ उठायब'। आ तेँ ओ नेना सब हाथमे सूप नेने घरे- घर सांकेतिक भीख मांगथि आ भीखमे अपन विभवसँ जे जुरनि मिला कए माए छठिक प्रसाद बनबथिन आ हाथ उठबथिन वा उठबबथिन।

छठि पूजाक संबंधमे पुरान आस्थाक एक अधुनातन विचार अमेरिका निवासी डाक्टर मनोज कुमार चौधरीक मुँहे सुनल। चौधरीजी कहैत छथि: 'उर्जा स्रोत सूर्य देव के आभार ज्ञापनक ई पाबनि सबहक पाबनि अछि। लोक उत्सव अछि। मनुष्य- प्रकृति संबंध के मजबूत करैत अछि। छठि 'वामपंथी' पाबनि अछि। अहि में पंडा- पुरोहित के काज नहिं। वेद मंत्र आ  बहुत विन्यास के आवश्यकता नहिं। सूर्य देव के उर्जा आ पृथ्वीक उर्वरताक धन्यवाद ज्ञापनक महापर्व अछि।

मुदा, नियम-निष्ठाक बाधा आ लंबा उपासक कारण सब केओ हठे छठि नहि ठानथि। हमर गाम छोट। गामक तीन टोलमे प्रायः प्रत्येक टोलमे एक-एक महिला छठि उपास (उपवास) करथि। ओएह लोकनि अपन टोलक निर्धारित पोखरिमे हाथ उठयबा ले’ ठाढ़ होथि। साँझुक आ भोरुका अर्घ्य दिन प्रत्येक परिवारसँ सबल युवक युवती लोकनि लोकनि छिट्टा-पथियामे प्रसाद बान्हि माथ पर उठा घाट धरि लए जाथि। घाट पर सब अपन-अपन जगह ‘छापय’ माने जे जतेक जल्दी पहुँचल से ततेक नीक स्थान चुनलक। ककरो बहुत पसार होइक। केओ एके टा ढाकन वा कोनियासँ संतोष करय।

गामक सबसँ बड़का पोखरि-पुरनी पोखरिक घाट पक्का रहैक। ओतय प्रसाद पसारि रखबामे सुविधा होइक। हमरा सबहक घरसँ लग।  सब जल्दीसँ जल्दी पहुँचबाक प्रयास करय। भोरुका अर्घ्य  लेल तँ हमरा लोकनि अहल भोर पहुँचि जाइ। हम तँ सबसँ छोट रही। अधरतियामे उठिकए जायबे बड़का गप्प छल। भोरुका अर्घ्यक हाथ तँ सूर्योदयक बादे उठैक। किछु कलकत्ता कमयनिहार लोकनि फटाका आ फुलझड़ी सेहो आनथि आ घाट पर छोड़थि। तेज आवाजवला फटाकाकें ‘ रवाइश’ कहल जाइक। हमरालोकनि सेहो छोट-मोट छुरछुरी आ ‘भूमि-पटाका’ ल’ जाइ।

अजुका शहरी पूजाक विपरीत तहिया गाममे लाउडस्पीकर आ  रिकार्डेड गीत-नाद एकदम नहि होइक। महिला लोकनि थोड़-बहुत गीत गाबथि कि नहि से स्मरण नहि अछि। कतहु कोनो सजावट नहि। नहाय-खाय शब्दो नहि सुनने रहिऐक। जे महिला हमरा लोकनिक अर्घ्यक हाथ उठबथि से खरना प्रसाद- गुड़खीर- केराक पातमे लपेटि घरे-घर पहुँचा देथिन। खरनाक प्रसाद खेबाक हेतु प्रीतिभोजक तँ गप्पे नहि हो। एहि वर्ष बंगलोर मे खरनाक खीरक संग एक पड़ोसीक घरमे शाकाहारी दिव्य भोजनक निमंत्रण छल।

व्रती लोकनि, आ जनिका पानिमे ठाढ़ हेबाक कबुला रहनि, हाथ उठयबाक अवधिमे सूर्य दिस मुँह कए हाथ जोड़ि पानिमे ठाढ़ होथि। लोक बेरा-बेरी अपन-अपन कोनिया-ढकना- सूप उठा- उठाकय व्रतीक हाथमे देथिन आ ओ अर्घ्य चढ़बथि। कोनिया-ढाकन- सूपमे ठकुआ-भुसबाक अतिरिक्त केरा-कुसियारक टोनी- हरदिक ढेकी इत्यादि होइक। घाट पर नैवेद्यक अतिरिक्त केओ केओ, जकर कबुला-पाती होइक कुम्हारक बनाओल माटिक हाथी आ ओहि पर कुडवार (माटिक घैलक एक प्रकार) घाट पर सजबथि। दीप जरबथि। कतहु-कतहु पुरोहित लोकनि सेहो आबि कय छठि कथा कहथिन। यद्यपि, छठिक अर्घ्य- हाथ उठयबा- लेल पुरोहितक आवश्यकता नहि होइक। व्रती लोकनि सोझे अपने ‘हाथ उठबथि’।      

साँझुक पर्व दिन तँ धिया-पुता ‘ काल्हि ठकुआ-भुसबा-केरा भेटत’ केवल ताही आश्वासन पर कहुना संतोष करय। ठकुआ माने साँच पर ठोकल गुड़पूरी। भुसबा माने, अरबा चाउर चिक्कस (आटा)क आ चीनीक मधुर लड्डू (rice balls)। लोभ तँ बड होइक। मुदा, चेतनलोकनि धिया-पुताकें बोल-भरोस दए सम्हारथि।

भोरुका अर्घ्यक हाथ उठओलाक पछाति व्रती छठि माता आ सूर्य भगवानक कथा कहथिन:

सूर्य भगवानक माय पोखरि पर दाउर (काठ) पर घाट  कारी कंबल खिचैत रहथिन। ओम्हरसँ जाइत केओ दाई-माई पुछलखिन: की खिचै छी ?

सूर्य भगवानक माय खौंझा कए कहलखिन: सूर्यक कोंढ़-करेज!

तावते दोसर दिससँ सूर्य अबैत रहथिन। ओ खसि पड़लाह। माय खिचब छोड़ि, दौड़लीह; बाउ की भेल?

सूर्य भगवान हँसय लगलखिन। माए सूर्य भगवानक हँसी बूझि गेलखिन। कहलखिन, ‘मायक सराप (गारि-श्राप) दाँते  (ऊपरे-ऊपर) होइत छैक, आँते (मनसँ) नहि !’

एहि कथामे सन्तानक हेतु माईक मात्सर्यक प्रदर्शन छैक। ई प्रायः छठि परमेश्वरीसँ  कृपा पयबाक भावनासँ प्रेरित हो, से संभव।

छठिक घाट पर कोनो दोसर बूढ़-पुरानक मुँहसँ कथा हमर जेठि बहिन - श्रीमती लीला देवी- कहलनि:

कोनो गाममे एक किसान परिवारमे दू सासु-पुतहु रहथि। ओ लोकनि बेरा-बेरी खेत पर जा अपन जजात ओगरथि। हुनका लोकनि खेतमे एक कोलामे मटर केर खेती रहैक दोसर कोलामे कुसियारक। एक दिन छठि परमेश्वरी हिनका लोकनिक परीक्षा लेबाक विचार केलनि। अस्तु, पहिल दिन आबि ओ सासुसँ मटर केर छिम्मड़िक याचना केलखिन। बूढ़ी मटर छिम्मड़ि देब अस्वीकार कए देलखिन। ओही काल मे कतहुसँ किछु चिड़ै आयल आ मटर केर छिम्मड़ि तोड़ि उड़ि गेल। बूढ़ीकें तामस भेलनि। कहलखिन, लए जाह, छिम्मड़िमे केवल पिलुआ भेटतह !

दोसर दिन छठि परमेश्वरी पुनः अइलीह। ओहि दिन पुतहुक रखबारिक पार रहनि। छठि परमेश्वरी हुनकासँ कुसियारक याचना केलखिन। रखबारि पुतहु कहलखिन जतेक मन हो लए जाउ। छठि परमेश्वरी प्रसन्न भए चलि गेलीह। पछाति जखन ओ दुनू सासु पुतहुकें वरदान देबाक नेयार कयलनि तो फेर अइलीह। ओ सासुसँ पुछलखिन अहाँकें केहन रंग चाही ? कहलखिन : उज्जर। हुनका सौंसे देह चर्क ( सफ़ेद दाग ) फूटि गेलनि। पुतहु कहलखिन: पीयर। हुनकर वस्त्र पीताम्बरी भए गेलनि। देह सोने-सोनामय भए गेलनि। काले क्रमे हुनका लोकनि अपन चरित्रक फल पाछुओ संग नहि छोड़लकनि जकर फल वा अभिशाप ओ लोकनि अगिलो जन्ममे भोगलनि। कथाक आगु सेहो छैक।

शिक्षा ई जे केओ किछु याचना करय देब तँ अस्वीकार नहि करिऐक।                

घाट पर उपस्थित दाई-माई लोकनि ई कथा भक्तिपूर्वक सुनथि, प्रणाम करथि। बाँकी गोटे प्रसादक पथिया-चङेरा  उठबथि आ घूरि आबथि। भोरुका अर्घ्य दिन प्रसाद खेबाक प्रतीक्षा आओर पैघ परीक्षा।  मुदा, अनुशासन तँ रहैक ।

पछाति गाममे जखन परिवारक आकार छोट होइत गेलैक, प्रसाद उठाकए दूर घाट धरि लए गेनिहारक अभाव भए गेलैक तँ हमर माता अपनहि छठि करब आरंभ केलनि। पोखरि दरबज्जे पर छल। पहिने तँ कहै जाथिन एहि पोखरिक यज्ञ नहि भेल छैक, शुद्ध नहि छैक। मुदा, पछाति लोक तकरा बिसरि गेल।

हमर माताक लेल  कोनो उपास लेल कठिन नहि। चाहे ओ दुर्गाक उपास हो, जितिया हो, हरिवासर हो वा छठिक। एकादशी-चतुर्दशी-सोमवारी-मंगलवारी आ सालमे छौ मास रवि दिन क’ एक संध्याक तँ कोनो कथे नहि। मुदा, छठि ओ बेसी दिन नहि केलनि। पछाति हमहूँ दूर-दूर रहय लगहुँ। सब छूटि गेल। पहिने किछु वर्ष छठि- चौरचनक बद्धी आ अनंत चिट्ठीक संग लिफाफमे आबय पछाति सेहो बन्न भेल। सब पाबनिक संग छठि सेहो छूटल; जे पूत परदेसी भेल, देव पितर सबसँ गेल !  

बंगलोरमे छठि, नवंवर २०२३ 
एहि बेर बंगलोरमे छठि देखि गाम मोन पड़ि आयल। पूर्ण निष्ठा। कोलाहल नहि। पटना-जकाँ  माथ फटबावला गीत नहि। घाट परक मेला-ठेला आ घमगज्जर नहि। तें, एहि बेर बहुत दिनक बाद गामक शान्त वातावरणमें पूर्ण आस्थासँ होइत पवित्र छठिक  स्मरण भाव-विह्वल कए देलक।              

Saturday, November 18, 2023

 

Doogie: The dog who travelled alone by train from Delhi to Bangalore

Doogie in his infancy

Transfers and posting of the soldiers, sailors and air-warriors is well-known and is a part of life. What’s not known is that they move not only with the family and household luggage, servants but also with their pets and horses on military warrant. And this time during our journey from Shimla to Bangalore, Doogie was our proud pet moving by train with us! But we had no clue about what lay ahead and that this journey would turn out to be a memorable one.

Traveling long distance with pets by train involve certain details. The Guard’s cabin has a dog-box where booked pets are kept during journey. The owner has to provide food and water periodically. Only ‘pup in the basket’ can travel in a common carriage with the  owner/ ‘pet-parent’. A full-grown dog could also travel with the owner in a first class coupe those days.

Journey from Shimla to Bangalore by train is not straightforward. One has to travel by the toy-train from Shimla to Kalka junction, and by broad gauze train from Kalka to Delhi. Since Karnataka express originates from New Delhi, journey from Delhi to New Delhi junction too is a story in itself.

It was month of July1999. Transition from cool Shivalik hills to summer heat in Delhi had to felt to be believed. We reached Delhi early in the morning and went straight to the to the railway guard and told him about our onward journey by Karnataka Express from New Delhi the same evening. Having done that I took it for granted that the railways would send my pet to New Delhi Jn and see to it that he accompanied us to Bangalore by Karnataka Express that evening. For us we had the whole long day to spend in the retiring room at Delhi Jn.

Army does not accept any last minute ‘flap’ and we believe in ensuring things to the last detail. So, I traveled to New Delhi Junction in day time to ensure a ‘smooth operation’. But it was shock to me to find no trace of Doogie at the parcel office at the New Delhi railway station! This was a disaster I wasn’t prepared for.

Some say, to survive in the Army you have to be all in one- a crook, a liar, a killer and also a b…..d! I too was left with no option but lie.  So, I instructed my children (one in college and the other a high school student then) to see to it that they board the train at New Delhi with mother safely in the evening while I saw to it that Doogie was settled properly in the dog-box with the guard. Everyone agreed. Now, having achieved success in the first falsehood at which I have a poor record, I kept visiting the non-existent pet in the guard box periodically throughout the 2-day long journey without anyone suspecting what was amiss!

But things took a different turn when we reached Bangalore. So, I had to put a convincing act of shock to declare that Doogie was lost mysteriously!

There was a fair amount of shock, anger, shedding of tears as also the resolve to sue the railways (!), and finally a promise to find the ‘most loved’ Doogie at any cost. I took everything in my stride without a word.

Those who have served in transferable job know the chores one undertakes on reaching a new station. In the Army, they always provide a temporary accommodation on arrival. But you have to run for school admission, gas connection, and permanent accommodation, and in my case to the nearest library without which my wife children won’t survive; books are their staple diet. That done, I joined my duties once the journey period and joining time came to an end. And once you join the unit, you are back to the grind. But my children would have none of it. Doogie had to be found!

So, about a week after we reached Bangalore, one day in between my hospital duties I found time to travel to Bangalore City Jn and went straight to the parcel office and as I inquired about my dog, the lady clerk sitting behind the desk almost jumped out of her seat and exclaimed: Col Jha you left your dog and forgot!

I had no time to reason. Finding Doogie was my sole mission. So, I asked. ‘Where is he?’ The lady pointed to the far end of the platform across rail lines. I lost no time and as I walked across, lo and behold! There was Doogie at platform number eight!! Tired and dirty. He went almost berserk at seeing me. It was a happy ending finally.

But as the news of his travel alone by train from Delhi to Bangalore spread in our residential colony, children started flocking around him whenever we took him for a walk. Many would ask with twinkle in their eyes, ‘uncle is he the dog who travelled from Delhi to Bangalore alone?’

I had no doubt, a chance separation from the owner made Doogie such a hero among children in the Air Force colony.

 

          

Sunday, November 5, 2023

ककहरा का अभियान (समसामयिक हिन्दी कविता )

     ककहरा का अभियान

सत्तर बरस के लोग, समझते है सत्तर पार को नादान
इसलिए, चला रखा है,
उम्रदराज को ककहरा पढ़ाने का अभियान
क्योंकि,
तर्क चलता कहाँ ,
अगर मित्र ने
मान लिया बाबा वाक्य प्रमाण!
किन्तु हे, मित्र! न बाबा हैं चिर नवीन,
न आप ही हैं मोतियाबिन्दु से अभय !
इसलिए, बदलते रहिए चश्मे,
साफ रखिए कान।
क्या पता बदलते वक्त की आवाज,
और दीवारों पर लिखे शब्द से
रह जायें आप बेखबर,
क्योंकि,
बाबा
कभी भी
चोला भी बदल सकते हैं
और चाल भी!
(ककहरा का अर्थ = वर्णमाला )

Wednesday, November 1, 2023

नव भाषासँ संपर्क आ संवादक समस्याक आधुनिक समाधान

 

नव भाषासँ संपर्क आ संवादक समस्याक आधुनिक समाधान

संवाद प्राणी मात्रक आवशयकता थिक. जलमे दहाइत असंख्य सूक्ष्म जीवक बीच, मनुष्य वा आन प्राणीक शरीरक भीतर अनगणित कोशिकाक बीच, मनुष्यसँ मनुष्यक बीच, तथा भिन्न-भिन्न प्राणीक बीच संवाद चलिते रहैत छैक. संवादक भाषा आ व्याकरण भिन्न-भिन्न होइत छैक. विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रमे मनुष्यो भिन्न-भिन्न भाषा बजैछ. तें जखन दू वा ओहिसँ बेसी भाषाभाषी, जे एक दोसराक भाषा नहि बूझैछ, एक ठाम जमा होइत छथि तं संवाद असंभव भए जाइछ, आ लोक अशक्तताक अनुभव करैछ.

हम अपने अनेक नव भाषाक संपर्कमे अयलहुँ. मुदा, भारतक भीतर सबठाम कोनो-ने-कोनो दुभाषियाक सहायता भेटिए जाइत छल. काज चलिए जाइत छल. मुदा, सबठाम केवल ‘काज चलब’ पर्याप्त नहि.

सर्वविदित अछि, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य सेवामे स्वास्थ्यकर्मी एवं रोगी तथा परिचारकक बीच अनायास संवाद सफल चिकित्साक मूल थिक. भाषाक समस्या भेने ने चिकित्साकर्मी  रोगीसँ आवश्यक सूचना पाबि सकैत छथि, आ ने ओलोकनि नीक-जकाँ रोगीकें आवश्यक निर्देशे दए पबैत छथिन. एहना स्थितिमे रोगीक परिचर्या ले रोगी आ परिचारकक पूर्ण सहयोगक आशा करब असंभव. फलतः, चिकित्साक लक्ष्य पाएब सेहो कठिन भए जाइछ. भिन्न-भिन्न भाषाभाषीक बीच चिकित्सकक रूपमे हमर अपन अनुभव एहि लेखक आधार थिक.

सबसँ पहिने हम जाहि नव भाषाक संपर्कमे आयल छलहुँ ओ छल तिब्बती भाषा. वर्ष छल 1983 ई. तिब्बती भाषासँ संस्कृत सहित आन भारतीय भाषासँ सर्वथा भिन्न. लद्दाखी आ अरुणाचल प्रदेशक दूर-दराजक क्षेत्रक भाषा आ तिब्बती भाषामे किछु समानता छैक. मुदा, हमरा तँ लद्दाखी वा अरुणाचल प्रदेशक भाषाओसँ कोनो परिचय नहि छल.

सर्वविदित अछि ई तिब्बती शरणार्थी लोकनि 1959मे पूज्य दलाई लामाक संग भारत आयल छलाह. 1983 ई. धरि तिब्बती शरणार्थी लोकनिकें भारत अएना करीब तेइस-चौबीस वर्ष भए गेल रहनि. बहुतो किशोर-किशोरी भारतहिमे जनमल रहथि, एतहि पढ़ने रहथि. तें, अधिकतर तिब्बती शरणार्थीलोकनि , भारतक जाहि प्रदेशमे घर आँगन बसओने रहथि, ओतुके भाषा- लद्दाखी, हिमाचली, ओड़िया, कन्नड़- क अतिरिक्त हिन्दी सेहो बाजिए लैत छलाह. भारतीय भाषा बजनिहार इएह तिब्बती लोकनि हमरा अतिरिक्त आन अनेक भारतीय सैनिक लोकनिक हेतु दुभाषियाक काज करथि. हम जखन पहिल पोस्टिंग पर रेजिमेंटल मेडिकल ऑफिसर(RMO) क रूपमे असम पहुँचल रही तँ ‘दावा नोर्बू’ नामक नर्सिंग असिस्टेंट एवं अनेक हिन्दी भाषी तिब्बती शरणार्थी दुभाषिया-जकाँ हमर सहायता करथि. फलतः, तिब्बती शरणार्थी लोकनिक संग पदस्थापनाक तीन वर्ष सफलता पूर्वक तँ कटिए गेल, ओतय हम जे किछु-किछु बोल-चालक तिब्बती भाषा सिखल, आइओ स्मरण अछि. मुदा, ओ तीन वर्ष ने तिब्बती भाषा सिखबाक हेतु पर्याप्त छल, ने ओहि समयमे नव भाषा सिखब ओ हमर प्राथमिकता छल.

आरंभिक सेवाक तीन वर्षक जे अवधि तिब्बती शरणार्थी लोकनिक संग बीतल तकर पछाति करीब तेरह वर्ष धरि उत्तर भारतमे बीतल. ओहि तेरह वर्षमे हम डोगरी, पंजाबी, हिमाचली, हरियाणवी प्रभृतिक अनेक भाषाक संपर्कमे अयलहुँ. मुदा, हिन्दीसँ एहि भाषा सबहक शब्दभंडार, वाक्य-विन्यास, आ ध्वन्यात्मक समानताक कारण जे किछु सीखि सकलहुँ, सिखैत गेलहुँ. मुदा, ताहि बेसी सिखबाक ने आवश्यकता भेल आ ने इच्छा.  हँ, 1991 ई. मे किछु दिन कश्मीर गेलहुँ. ओतुका भषा सर्वथा नवीन बूझि पड़ल. कश्मीरीक प्रति जिज्ञासा नहि जागल, से नहि. मुदा, ओ काल कश्मीरमे आतंकवादक बिहाड़िक काल रहैक. पंजाबी आ डोगरीक विपरीत कश्मीरी भाषाक हिन्दी-मैथिली-बांग्लासँ कोनो समानता नहि. संस्कृत शब्दक अभाव तथा वाक्य-विन्यास एवं ध्वनिक असमानताक कारण हम कश्मीरी भाषाक किछुओ नहि सीखि सकलहुँ.

बहुत दिनक बाद, वर्ष 1999 मे हम पोस्टिंग पर बंगलोर पहुँचहुँ. कर्णाटकक भाषा कन्नड़ थिक. मुदा, दैनिक काजमे हमरा कन्नड़ सिखबाक कोनो काज नहि भेल. भारतीय सैनिक कोनो भाषाभाषी होथु, हिन्दी बजिते छथि. अस्तु, रोगीसँ संवादमे कोनो समस्या नहि. किन्तु, ओतय ‘कुरल’सँ परिचय एकटा एहन घटना छल जे हमरा सोझे तमिल भाषा सिखबाक हेतु प्रेरित कयलक. मुदा, अपनहुँ प्रयासे तमिल सिखबाक अभियानमे अओरो तेरह वर्ष लागि गेल. ओ अवधि, पहिने लेह आ लखनऊ, आ पछाति पोखरा (नेपाल) मे बीतल. तें, तमिल सिखब तखन आरंभ भेल जखन हम 2012 ई. अंतमे पांडिचेरी पहुँचहुँ. ओतय हमरा पहिल बेर अनुभव भेल जे तमिलनाडु-पांडिचेरीमे सफल चिकित्सक हयबा लेल तमिल बाजब अनिवार्य थिक. मातृभाषाक प्रति एतेक लगाओ हमरा आन कोनो प्रदेशक नागरिकमे देखबामे नहि आयल. तमिल लोकनि मातृभाषा-प्रेमक दृष्टिसँ बंगालीओसँ बहुत आगाँ छथि. फलतः, आइ हमरा जतबो किछु तमिलक ज्ञान अछि, पांडिचेरीएक देन थिक. ओतुका करीब नौ वर्षक प्रवास पढ़बा-लिखबाक दृष्टिसँ सेहो अत्यंत उर्वर प्रमाणित भेल, से निर्विवाद.  

पांडिचेरी छोड़लाक पछाति, नव भाषाक संग हमर परिचयक एक अध्याय एखनो बाँकीए छल. कर्णाटकमे सैन्य-सेवा अवधिक उन्नैस वर्षक बाद- मार्च 2021 मे हम पुनः बंगलोर अयलहुँ . एतुका ग्रामीण नागरिकलोकनिक  एकमात्र भाषा कन्नड़ थिक. यद्यपि बंगलोरमे तमिल आ तेलुगु भाषीक अतिरिक्त हिन्दीभाषीक संख्या थोड़ नहि. तथापि, श्री सत्यसाईं जनरल हॉस्पिटलमे, जतय हम एखन निःशुल्क सेवा दैत छिऐक, जे स्थानीय ग्रामीण रोगी अबैत छथि, से अधिकतर कन्नड़ वा तेलुगु बजैत छथि. माने, हम हिनका लोकनिक सामने पुनः बौक-बहिर छी. तमिलक ज्ञान किछु-किछु सहायता अवश्य करैछ, मुदा, किछुए. मुदा, वर्ष 1919 आ 2023 क बीच बड़का अंतरालमे अनेक बड़का परिवर्तन भए चुकल छैक. सर्वज्ञ बाबा गूगलक अवतार महात्मा बुद्ध वा महावीरक अवतारसँ कम नहि. एहन कोनो प्रश्न नहि, हिनका जकर उत्तर नहि बूझल छनि. एहन कोनो भाषा नहि जे हिनका बौक-बहिर बना सकैत अछि. फलतः, आवश्यकता पड़ने हमहूँ मोबाइल फोन पर Google translate खोलैत छी. मूल भाषामे अंग्रेजी दए, अनुवादक भाषा कन्नड़ वा तेलुगु सेट करैत छी. माइक ऑन करैत छी, आ अपन प्रश्न पूछैत अंग्रेजीमे पुछैत छिऐक. क्षण भरिक विरामक पछाति, रोगी हमर प्रश्न सोझे कन्नड़ वा तेलुगुमे सुनिते नहि छथि, ओ मोबाइल फोन पर अपन भाषामे ओएह प्रश्न पढ़िओ लैत छथि. अर्थात् बाबा कन्नड़ वा तेलुगुमे प्रश्न पुछैत छथिन आ रोगीएक भाषामे उपचार सेहो बुझबैत छथिन. अस्तु, बाबाक जय हो !

हं, बीचमे हमरा एक बेर रोबर्ट काडवेल केर A Comparative Grammar of the Dravidian or South-Indian Family of Languages क पुनः परायणक विचार सेहो भेल छल. उद्देश्य ई जे एहि व्याकरणसँ हम तमिलकें सुधारबाक अतिरिक्त, कन्नड़ आ तेलुगु सेहो सीखि ली. किन्तु, ई निर्विवाद जे बोलचालक भाषा सिखबाक हेतु व्याकरण नहि, भाषा सुनय आ बाजय पड़ैत छैक. इएह कारण थिक अद्यावधि  भारतक जे छात्र-शिक्षक अंग्रेजी सिखबाक लोभें व्याकरण पढ़ैत जिनगी बिता देलनि, अधिकतर अंग्रेजीमे संवादक हेतु दक्ष नहि भए सकलाह. अस्तु, Robert Caldwell  एखन कात जाथु, Google शरणम् गच्छामि !

हँ, गूगल बाबाक कारण दुभाषियालोकनिक आ अनुवादक माध्यमसँ जीविका उपार्जन कयनिहार विद्वान लोकनिक की हेतनि, से लाख टाकाक प्रश्न थिक. तखन, कहितो छैक, जे जन्म लैछ, कहुना जीविका ताकिए लैछ!                     

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