जटही
पोखर
तालाबों भरे गाँवमें
मैं वर्षों तक अछूत-सा था : जटही पोखर. दक्षिणमें भुतही गाछी. उत्तरमें बड़ा-सा कलम
बाग़. भीड़के ठीक नीचे उत्तर-दक्षिण जाता सड़क, बड़ा-सा मैदान, पीपल का पेड़, बच्चोंका
स्कूल, संस्कृत पाठशाला, और फिर दूसरा पोखर जो नजदीक के लक्ष्मीनारायण मन्दिर का
पोखर है. मेरे पूरब, और मेरे पश्चिम के पोखर के पश्चिम जहाँ तक नजर जाए केवल धान
के खेत.
लोग कहते
हैं, गाँवोंमें जहां भी लोग होते हैं, भूत और चुड़ैल भी वहां डेरा डाल ही लेते हैं
. लेकिन, बच्चे केवल डरते मुझसे हैं- जटही पोखरसे. इसलिए, मैं थोड़ी अपनी बातें कर
लूं.
ऊँचे भीड़. खड़े
किनारे. साफ़, गहरा पानी और भरपूर मछली. अलबत्ता एकबार चोरों को चोरी के सामान को छिपाने की जगह नहीं मिली तो उसे मेरे जटही पोखर मे ही डुबा गये और
आज तक किसीको उसकी खबर न मिली.
कभी कभार कोई
दिलेर इंसान रात को मछलियों के लिए जटही पोखरके पानी में चारे डाल जाता है और दिनमें
बंसी डाल कर अपना हुनर आजमाता है. मछली मिली तो ठीक, नहीं तो कमला के किनारे इस
गाँव में मछली की कमी है भला.
बच्चे भूल कर भी हमारे किनारे पर नहीं आते. बच्चों को कहते कई बार सुना है, ‘जटहीके पेट में गोह है. पानीमें पैर डाला कि नहीं, सीधा खीच लेता है. सुना है, कभी-कभी गोह पानी से निकलकर बच्चों की तलाशमें किनारे पर भी बैठा होता है. पत्तों के बीच. पत्तों जैसा ही रंग. रंग बदल लेता है. आखिर है तो गिरगिट ही !’ इसलिए नजदीक के गाछी के पेड़ों के पके और गिरे हुए आम भले सड़ जाएँ, ये बच्चे इधर मुंह नहीं करते. बर्ना, बच्चे कहीं पके आम को छोड़ते हैं ! पर, कभी-कभार चरबाहे, हल-कुदाल चलानेवाले किसान और बटोही जटहीमें पैर हाथ धो लेते हैं. लक्ष्मीनारायण के मन्दिर का पोखर सड़क से थोड़ा अलग जो है.
जटही पोखर |
आखिर किसको
अपना जन्म याद होता है. मगर, बरगदके पेड़ के नीचे बैठे बड़े-बूढ़ों की बातें एकबार सुनी
थी. कहते हैं, एकबार बहुत बड़ा अकाल पड़ा था. रोजगार की तलाश में दूर दूर से आए लोग जहां-तहां
घूम रहे थे. उसी समय दूर से आया जाटों के एक जत्थे ने इस गाँवमें डेरा डाला था. उन्होंने
ही यहाँ एक तालब खोदा था, जिससे मेरा नाम जटही हो गया: जाटों का खोदा तालाब. आस
पास के गाछी-कलमबागमें भूत चुड़ैल भले हों, मगर, मेरी असली बदनामी बाद में हुई, जब
मोदाइ झा नाम का एक गबरू जवान जटही में डूब कर मर गया था. सुनते हैं, मिर्गी की
बिमारी थी उसे. किनारे के पास से जा रहा था. दौरा पड़ा. दौरे में ही लुढ़क कर पानी
में जो गिरा, बाहर नहीं आ पाया. लोग कहतें हैं, आस-पास की चुड़ैले उसकी गर्दन चबा
गयी थी. बच्चे तो खौफ से पूरब की तरफ देखना भूल गये थे. क्यों न हो. यहाँ के स्कूल
के बच्चे कद में इतने छोटे होते थे कि उनकी ऊँचाई स्कूलके चबूतरे तक भी नहीं
पहुँचती थी. मोदाई झा तो उनके सामने ताड़ था. जब जटही उसे गटक सकती है, तो बच्चों
की क्या बिसात ! स्कूल में भी जब किसी बच्चे ने पैंट में मूता या क्लास में बातें
की, कि मास्टर जोर से चिल्लाते, ‘इसे जटहीमें फेक आओ’. मजे लेने के लिए जैसे ही बड़े
बच्चे गुनहगार बच्चे की ओर लपकते, अपराधी बच्चे को साँप सूंघ जाता था. छिपने की तो
कोई जगह थी नहीं. स्कूल भी क्या था, मिट्टी का एक लम्बा चबूतरा था जिसके उत्तर और
दक्षिण के दोनों छोर पर शीशम के दो ऊँचे
खम्भे थे. खम्भे के उपर एक सीधा बरी था और पूरब और पश्चिम के तरफ गिरती एक-एक
छप्पर. जब छप्पर जर्जर होने लगता था, कोई गौवां पांच- दस बोझ फूस दे जाता था. मास्टर
लोग श्रमदान से उसे किसी तरह छत पर डलबा देते थे. इसी भवन (!) के उत्तरी हिस्से
में स्कूल का क्लास लगता था और दक्षिण के तरफ मौलवी मोहम्मद युनुस का मदरसा , जहाँ
मौलवी साहब अपने शागिर्दों को उर्दू की तालीम देते थे.
एकबार बड़े अंधड़
में स्कूल का छप्पर जो उड़ा, सो उड़ ही गया. जाड़ेके दिन तो बच्चे धूप में बैठ लेते
थें और मास्टर लोग संस्कृत पाठशाला के बरामदे पर अपना बेंच डाल लेते थे. मगर मौलवी साहब ने भी हौसला नहीं
छोड़ा. लेकिन ये बातें, तो बात की बात है. स्कूल तो बाद में बड़े पीपल के नीचे, और
उसके बाद गाँव के तीसरे किसी पोखर के भीड़ पर चला गया था. इस छोटे से गाँव में भला
पोखर और कलमबाग़ की कमी है ! हमारे करीब से स्कूल के हंटते ही बच्चे सदा के लिए मेरी नजर से दूर हो गये. और
जटही का खौफ भी जाता रहा !
लक्ष्मीनारायणके
मन्दिर का पोखर. उसकी तो और ही बात थी. कहते हैं, दरभंगा महाराजा की माँ इस गाँव में पैदा
हुई थीं. उन्होंने यहाँ पोखर खुनबाने की सोची, तो चमत्कार हो गया. तालाब से
लक्ष्मीनारायण की मूर्ति जो निकल गयी. मूर्ति निकल गयी, तो मन्दिर भी बन गया. मन्दिर
बन गया तो संस्कृत पाठशाला भी खुल गया. लक्ष्मीनारायण
तो उस पोखर के पानी से नहाते ही थे, लोगों को भी उस पोखर का पानी मीठा लगता था. पीछे
किसी ने उस पोखर में मखाने के बीज डाल दिए तो डूबने की परवाह किए बिना कच्चा मखाना
के लिए बच्चे पोखर के पानी में उतरने लगे. मखाने से याद आया. यहाँ के लोग पान और
मखान के लिए पागल हैं. कहते हैं, पान और मखान स्वर्ग में भी नहीं मिलता है. पर, वो
तो दूसरी बात है. मखाने की एक और बात है:
इसके फूलों का रंग केसर के फूलों जैसा भले हो, पर, पत्तों पर कांटे ! बाप रे बाप !!
तभो तो अगर कभी किसी लड़के, ने इस गाँव की किसी लड़की को छेड़ा, तो वह मुँह बनाती है
और कहती है, ‘ मखाने के पत्ते से मुँह पोछ कर आ जा !
पर बातें तो हम
पोखरों की हो रही थी. हम लड़के-लड़कियों पर कहाँ चले गये. हाँ, लड़के-लड़कियों से याद आया. एक दिन इस स्कूल का
कोई ‘बूढ़ा’ बच्चा शहर से यहाँ आया था. गाँव में वैसे ‘बूढ़े’ बच्चों की कमी नहीं. यहाँ
की ‘बूढ़ी’ बच्चियों को तो मैंने कभी लौटकर आते नहीं देखा. एक बार गाँव से गयीं, सो
गयीं. तो फिर यहाँ के ‘बूढ़े’ बच्चों की
बात करते है. उस दिन जब इस स्कूल का वह ‘बूढ़ा’ बच्चा शहर से यहाँ आया था तो लक्ष्मीनारायण
के मन्दिर का पोखर देखकर वह शहरी ठंडी साँसे ले रहा था. लक्ष्मीनारायण के मन्दिर
के पोखर का जलकुम्भी से भरा पेट. ढहते भीड़ और सूनसान सा मैदान ! स्कूल तो कब का
यहाँ से चला गया था. संस्कृत पाठशाला के खपरैल कमरे कब के मिट्टी में मिल चुके थे.
कभी-कभार कोई भूला भटका बूढ़ा पण्डित लक्ष्मीनारायण का दर्शन करने आता है तो पाठशाला
मिट्टी माथे लगाता है. एकबार स्कूल का एक बूढ़ा विद्यार्थी बूढ़े पीपल की तस्वीर भी
खींच कर ले गया था.
हाँ, तो, उस ‘बूढ़े’
विद्यार्थियों की बात तो रह ही गयी. वह शहरी लक्ष्मीनारायण के मन्दिर का पोखर
देखकर ठंडी साँसे ले रहा था. जलकुम्भी से भरा पेट और ढहते भीड़ को देखकर पुरानी बातें
कहा रहा था. कहा रहा था, जटही से तो लोग बाग़ सब दिन ही डरते रहे, लेकिन, लक्ष्मीनारायण
का पोखर ? वह तो हमरा साथी था. लगता है, एक के बाद एक गुजरते जाते हमारे बांकी साथियों की तरह यह भी नहीं बचेगा !
इस पर ग्रामीण बूढ़े ने जो कहा उससे मुझे कैसा लगा यह कहना मुश्किल है . ग्रामीण बूढ़ा
जो शहरी के बचपन का अजीज था, कहा रहा था, अब यहाँ कोई पोखर, कोई इनार नहीं बंचेगा. घर-घर में
नल है, पर खेतो में हल नहीं. गाँवमें
मवेशी नहीं, चरवाहे, हरवाह, बहलमान भी नहीं हैं . लक्ष्मीनारायण के मन्दिर में भी नलका
लग चुका है. पोखर के पानी में रसोई बनाकर खाने से नए, युवक पुजारी की आंत उखड़ गयी थी.
अब गाँव के लोगों के पास अफरात पैसे हैं. पर गाँव में जमीन नहीं है. जमीन का भाव
आसमान छू रहा है. इसलिए, इस बार जो देखना हो देख लो. तस्वीर खींच लो. अगली बार आओगे
तो न तो जटही मिलेगा, न लक्ष्मीनारायण का पोखर. सब सपाट हो जाएगा !
No comments:
Post a Comment
अहाँक सम्मति चाही.Your valuable comments are welcome.