संस्मरणक सार्थकता
संस्मरण की थिक ? किछु इतिहास आ किछु लेखा जोखा . मनुक्खसँ समाज बनैछ. समाजक इतिहास, देश-दुनियाक इतिहास
होइछ. तें मनुक्खक इतिहास, वृहत् इतिहासक आधारशिला होइछ. मनुक्ख के छलाह, ओ समाजले की-की केलनि, ई सब प्रश्न व्यक्तिक जीवनकें सामाजिक सार्थकता
प्रदान करैत छैक . मुदा जं कोनो मनुख्यक जीवन सार्वजनिक हितक नहिओ होइक ,
सार्वजानिक जीवनक हिस्सा नहिओ होइक, तथापि 'मानुस जनम अनूप' तं थिकैक. तें अदनो
मनुक्खक जीवन समाजक निरंतर गतिमान धाराक जल तं थिके. भले एक बुन्न जल, वा एकटा
जिनगी क कोनो अपन स्वतंत्र अस्तित्व नहि होइक. मुदा, बूंदे- बूंदेसँ तं समुद्र बनैछ .अस्तु, हमर संस्मरण भले समुद्रक
बून्दे थिक, आइ हम अपन अनुभवकें मोन पाड़बामे प्रवृत भेलहुँ-ए.
भारतक स्वतन्त्रता प्राप्तिक किछुए वर्ष पछाति हमरा लोकनिक जन्म भेल छल .
देशमे नव स्फूर्ति आ आशा जागल छलैक. क्रमशः की भेलैक आ भ’ रहल छैक से सर्वविदित
अछि. फलतः, आब स्वतंत्रताक ७७ वर्षक पछाति,
लोकक मनमे आशाक संग निराशा आ अविश्वास सेहो जड़ि जमा चुकल छैक . एतबे दिनमे आशाक संग
निराशा मिज्झर भए गेलैक ? मनुष्यमे एहन कोन परिवर्तन भेलैये जे लोकके समाज आ संविधान
परसँ विश्वास उठि गेलैये. एहि देशकेर ओहि वर्ग, जकरा पर पहिने ककरो अविश्वास नहि छलैक ओकर
विरुद्ध अविश्वासक बीआ रोपबाक प्रयास भ’
रहल अछि. एहि सब अभियानसँ समाजपर कोन आ केहन
असरि पड़तैक से सोचबाक विषय थिक . तथापि, हम
भारतेंदु हरिश्चंदकेर ओहि उक्तिसँ सहमत
नहि छी जाहिमे शताब्दी पूर्व ओ कहने रहथिन:
सब भांति देव प्रतिकूल एहि नाशा,
अब तजहु वीरवर भारत की सब आशा
एखनहु पूर्ण आशा अछि. हमरालोकनि निरंतर प्रगतिक दिस अग्रसर छी; हमरा लोकनि सफल
हयब. हमर
अपन जीवन यात्रा मिथिलाक विशुद्ध देहातसँ आरम्भ भेल छल . पढ़लहुँ चिकित्सा शाश्त्र आ अंततः सेना चिकित्सा कोर केर
सेवाक प्रसादें चरितार्थ भेल भेल, 'अग्रतः सकलं शास्त्रं, पृष्ठतः सशरं धनुः'. भारतीय सेनाक नौकरी, आ पछाति असैनिक सेवाक प्रतापें सम्पूर्ण देशकें लगसँ देखबाक अवसर भेटल. अनुभव कहैत अछि , किछु-किछु
तं सम्पूर्ण भारतमे एके रंग छैक मुदा किछु-किछु
सर्वथा भिन्न . भाषा सब ठाम भिन्न-भिन्न छै , मुदा, गरीब-गुरुबाक स्वरुप एके रंग . आधारभूत संरचना आ प्रशासनमे
भिन्नता छैक, मुदा, राजनेता आ भ्रष्टाचार एके रंग. हवा -पानिमे भिन्नता छै, देवी देवताक
स्वरुप भिन्न-भिन्न छनि, मुदा, विश्वास आ धर्मभीरुता एके रंग . मुदा एकटा रोग सब ठाम एके रंग
पसरि रहलैए : सार्वजानिक चिकित्सा
व्यवस्थामे सरकारक घटैत भागीदारी आ प्राइवेट स्वास्थ्य सेवाक प्रसारक संग बढ़ैत
बेईमानी . ई परिवर्तन आम आदमीक जीवनकें दुस्कर तं बनाइये रहलैके, लोककें आब वकीले-
मुख़्तार-जकाँ डाक्टरसँ भय होमय लगलैए.
मुदा करत की ? थिकाह तं 'वैद्यो नारायणो
हरिः' ! मुदा, लगैत अछि, कनिएक दिनमे वैद्य आ बनियाँ, डाक्टर आ डकैत एके पांतीमे
बैसाओल जयताह, से असम्भव नहि . पहिनहुँ तं केओ कहनहि
छथिन:
वैद्यराज नमस्तुभ्यं यमराजसहोदर ।
यमः हरति प्राणाः , वैद्यो प्राणाः धनानि च !
अस्तु, अहाँ वैद्यकें बूझी नारायण-हरि
वा यम, आब हमर (सैनिक-वैद्यक) जीवनक
अनुभवक प्रतीक्षा करू. हमर अनुभव जतय अहाँक अनुभवक संग पूरैत अछि , ओ समाजक
सामान्य अनुभव भेल . जतय हमर आ अहाँक अनुभव फूट -फूट बाट धेने आगू बढ़इत अछि, कहबाले
हमरा लग किछु नव अवश्य अछि. आ सएह थिक एहि संस्मरणक नवीनता वा सार्थकता.
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अहाँक सम्मति चाही.Your valuable comments are welcome.