Tuesday, September 10, 2024

संस्मरणक सार्थकता

 

संस्मरणक सार्थकता

संस्मरण की थिक ? किछु इतिहास आ किछु लेखा जोखा . मनुक्खसँ  समाज बनैछ. समाजक इतिहास, देश-दुनियाक इतिहास होइछ. तें मनुक्खक इतिहास, वृहत् इतिहासक आधारशिला होइछ. मनुक्ख के छलाह, ओ समाजले की-की केलनि, ई  सब प्रश्न व्यक्तिक जीवनकें सामाजिक सार्थकता प्रदान करैत छैक . मुदा जं कोनो मनुख्यक जीवन सार्वजनिक हितक नहिओ होइक , सार्वजानिक जीवनक हिस्सा नहिओ होइक, तथापि 'मानुस जनम अनूप' तं थिकैक. तें अदनो मनुक्खक जीवन समाजक निरंतर गतिमान धाराक जल तं थिके. भले एक बुन्न जल, वा एकटा जिनगी क कोनो अपन स्वतंत्र अस्तित्व नहि होइक. मुदा, बूंदे- बूंदेसँ  तं समुद्र बनैछ .अस्तु, हमर संस्मरण भले समुद्रक बून्दे थिक, आइ हम अपन अनुभवकें मोन पाड़बामे प्रवृत भेलहुँ-ए.

भारतक स्वतन्त्रता प्राप्तिक किछुए वर्ष पछाति हमरा लोकनिक जन्म भेल छल . देशमे नव स्फूर्ति आ आशा जागल छलैक. क्रमशः की भेलैक आ भ’ रहल छैक से सर्वविदित अछि. फलतः, आब स्वतंत्रताक ७७  वर्षक पछाति, लोकक मनमे आशाक संग निराशा आ अविश्वास सेहो जड़ि जमा चुकल छैक . एतबे दिनमे आशाक संग निराशा मिज्झर भए गेलैक ? मनुष्यमे एहन कोन परिवर्तन भेलैये जे लोकके समाज आ संविधान परसँ  विश्वास उठि गेलैये. एहि  देशकेर ओहि  वर्ग, जकरा पर पहिने ककरो अविश्वास नहि छलैक ओकर विरुद्ध  अविश्वासक बीआ रोपबाक प्रयास भ’ रहल अछि. एहि सब अभियानसँ  समाजपर कोन आ केहन  असरि पड़तैक से सोचबाक विषय थिक . तथापि, हम भारतेंदु हरिश्चंदकेर ओहि उक्तिसँ  सहमत नहि छी जाहिमे शताब्दी पूर्व ओ कहने रहथिन:

सब भांति देव प्रतिकूल एहि नाशा, 

अब तजहु वीरवर भारत की सब आशा

एखनहु पूर्ण आशा अछि. हमरालोकनि निरंतर प्रगतिक दिस अग्रसर छी; हमरा लोकनि सफल हयब.                     हमर अपन जीवन यात्रा मिथिलाक विशुद्ध देहातसँ  आरम्भ भेल छल . पढ़लहुँ  चिकित्सा शाश्त्र आ अंततः सेना चिकित्सा कोर केर सेवाक प्रसादें चरितार्थ भेल भेल, 'अग्रतः सकलं शास्त्रं, पृष्ठतः सशरं धनुः'. भारतीय  सेनाक नौकरी, आ पछाति असैनिक सेवाक प्रतापें  सम्पूर्ण देशकें लगसँ  देखबाक अवसर भेटल. अनुभव कहैत अछि , किछु-किछु तं  सम्पूर्ण भारतमे एके रंग छैक मुदा किछु-किछु सर्वथा भिन्न . भाषा सब ठाम भिन्न-भिन्न छै , मुदा, गरीब-गुरुबाक  स्वरुप एके रंग . आधारभूत संरचना आ प्रशासनमे भिन्नता छैक, मुदा, राजनेता आ भ्रष्टाचार  एके रंग. हवा -पानिमे भिन्नता छै, देवी देवताक स्वरुप भिन्न-भिन्न छनि, मुदा, विश्वास आ  धर्मभीरुता एके रंग . मुदा एकटा रोग सब ठाम एके रंग पसरि  रहलैए : सार्वजानिक चिकित्सा व्यवस्थामे सरकारक घटैत भागीदारी आ प्राइवेट स्वास्थ्य सेवाक प्रसारक संग बढ़ैत बेईमानी . ई परिवर्तन आम आदमीक जीवनकें दुस्कर तं बनाइये रहलैके, लोककें आब वकीले- मुख़्तार-जकाँ डाक्टरसँ  भय होमय लगलैए. मुदा करत की ? थिकाह तं  'वैद्यो नारायणो हरिः' ! मुदा, लगैत अछि, कनिएक दिनमे वैद्य आ बनियाँ, डाक्टर आ डकैत एके पांतीमे बैसाओल जयताह, से असम्भव नहि . पहिनहुँ   तं केओ कहनहि  छथिन:


वैद्यराज नमस्तुभ्यं यमराजसहोदर ।

यमः हरति प्राणाः , वैद्यो प्राणाः धनानि च !

अस्तु,  अहाँ वैद्यकें बूझी नारायण-हरि वा यम,  आब हमर (सैनिक-वैद्यक) जीवनक अनुभवक प्रतीक्षा करू. हमर अनुभव जतय अहाँक अनुभवक संग पूरैत अछि , ओ समाजक सामान्य अनुभव भेल . जतय हमर आ अहाँक अनुभव फूट -फूट बाट धेने आगू बढ़इत अछि, कहबाले हमरा लग किछु नव अवश्य अछि. आ सएह थिक एहि संस्मरणक नवीनता वा सार्थकता.

No comments:

Post a Comment

अहाँक सम्मति चाही.Your valuable comments are welcome.

मैथिलीकें जियाकय कोना राखब: समस्या आ समाधान

कीर्तिनाथक आत्मालापक पटल पर 100 म  लेख   मैथिलीकें जियाकय कोना राखब: समस्या आ समाधान  कीर्तिनाथ झा वैश्वीकरण आ इन्टर...

हिन्दुस्तान का दिल देखो