मैथिली पोथीक बिक्री: समस्या आ समाधान
आइ सं चालीस-पचास वर्ष पूर्व कतेको साहित्य छपाईक मुंह बिनु देखनहिं कालक गालमें समा जाइत छल. कोनो पोथी दिबाडक भोजन भ जाइत छल तं कोनो पोथी बाढ़ि-पानि में दहा जाइत छल. तथापि किछु लेखक अपन पेट काटि पुस्तक छपेबाक उद्योग करैत छलाह, आ किछु गोटे कें पुस्तकक गुणक कारण विश्वविद्यालय, लाइब्रेरी, वा साहित्य-प्रेमी लक्ष्मीपुत्र सं सहायता भेटि जाइत छलनि. तथापि ग्राहक केर कमी तं रहिते छलैक. आब टेक्नोलॉजीक उपलब्धता आ सुधरैत आर्थिक स्थितिक कारण प्रतिवर्ष सैकड़ो मैथिली पुस्तक छपैत अछि . तथापि, बिक्रीक समस्या यथावत अछि . ई हम अपन अनुभव सं कहैत छी; विगत 17 वर्षमें हम अपन खर्च सं तीन गोट पोथी छपौने छी. किन्तु , केओ एकोटा पोथी किनने होथि आ आशीर्वादहुक रूपें केओ एकोटा पोथिक मूल्य देने होथि से स्मरण नहिं अछि. इहो सत्य जे हमरा कतेको गोटे निःशुल्क पोथी दैत छथि, पठबैत छथि, आ आग्रहो केलापर दाम स्वीकार नहिं करैत छथि. हमहू बहुतो गोटे कें पोथी हाथें -हाथ दैत छियनि, वा पठबैत छियनि . किन्तु, एतय विवेचना विषय ई थिक जे मैथिली पोथी किएक नहिं बिकाइए. जं संख्याक दृष्टिऐं देखियैक तं बाज़ारमें सबसँ बेसी मांग स्कूल-कालेजक किताबक होइत छैक. बिहारमें शिक्षाक माध्यम मैथिली नहिं. तें स्कूल कालेजक छात्रक बीच वएह पुस्तक बिकाइत अछि जे वैकल्पिक विषयक कोर्समें सम्मलित अछि. कोर्स सं इतर पुस्तकक बिक्री समाजक पढ़बाक रूचि पर निर्भर करैछ.पोथी पढ़ब मिथिला में कहियो आम रूचि छल हेतैक से कहब मुश्किल. अजुको साक्षरताक परिस्थिति तं सर्वविदिते अछि. तखन जे मनोरंजन ले पोथी तकैत छथि तनिका सब सं पहिने चिन्हार लेखक परिचित विधाक खोज रहैत छनि. हमरा नहिं लगैत अछि, हरिमोहन झाक पछाति, प्रभास कुमार चौधरीक अतिरिक्त कोनो गद्य लेखकक नाम ल सकैत छी जे कथा-उपन्यास नियमतः लिखैत आ छपबैत रहलाह. किन्तु, हुनको लोकनिक पोथी कतेक संख्या में बिकायल छल से मैथिली साहित्यक अध्येता लोकनि कहि सकैत छथि. आजुक समय में जखन पोथीक उपलब्धता आ आम आर्थिक परिस्थिति (purchasing power ) दुनू में सुधार भेलैये ताहि स्थिति में नीको पुस्तक जं नहिं बिकाइत अछि तं ओकर एकटा प्रमुख कारण एहो अछि जे बहुतो मूलतः मैथिली भाषी घर में बोल-चालक भाषा मैथिली नहिं हिंदी अछि . चिट्ठी-पत्री लिखब समाप्ते भ गेलैये . एहना स्थिति में धिया-पुता मैथिली पढ़िकय बूझि नहिं पबैछ. आ लोक अपना वा अनका घरमें मैथिली किताब कीनि कय ककरो उपहार नहिं दैत छैक.
पोथीक बिक्री में दोसर जटिल समस्या पोथीक उपलब्धता थिक. पोथीक मार्केटिंग गाम-गाम में हेबाक चाही. छोट-छोट स्तर पर गाम गाममें पोथी बेचबाक नेटवर्क केर आवश्यकता छैक. किन्तु, ई अभियान केवल मैथिली प्रेम आ सेवाक नाम पर असम्भव अछि. एहि में बाज़ारक दस्तूर कें स्वीकार करय पड़त. विक्रेताके आर्थिक लाभक हिस्सा बनबय पड़त. शहरी आ अंतर्राष्ट्रीय पाठकक हेतु एखनहु सुपरिचित मैथिली पोथी सब Amazon आ flipkart पर उपलब्ध नहिं अछि.
जं किछु पोथिक Kindle एडिशन उपलब्धो अछि तं मैथिलीक कतेक पाठक Kindle क
प्रयोग करैत छथि. तथापि हमरा विचारें मैथिली पोथिक pdf आ Kindle संस्करण
उपलब्ध भेला सं पोथिक बिकायबाक क्षेत्र लोकल सं सोझे ग्लोबल भ जेतैक . हम
पछिला अनेक वर्ष सं अपन ब्लागस्पाट kirtinath.blogspot.com पर यदा-कदा
लिखैत छी. किन्तु, हमर ब्लॉग के पढ़निहार भारत सं बेसी उत्तर अमेरिका में
छथि ! न्यू यॉर्क टाइम्स क प्रसिद्द लेखक थॉमस फ्रेडमैन सेहो कहैत छथि, जे
पोथी के इन्टरनेट पर मुफ्त द देला सं ओही किताबक सजिल्द किताबक बिक्री
स्वतः बढ़ि गेलनि. मैथिली प्रकाशनमें एहन स्थायी प्लेटफॉर्मक अभाव तेसर पैघ समस्या थिक. एहन प्लेटफार्म जाहिपर कोनो लेखकक निरंतर प्रकाशन सं हुनक लेखनकएकटा स्थायी छवि बनि सकनि आ पाठक ओहि लेखकक लेखन कें ताकि-ताकि पढ़थि से नहिं भ सकल अछि. मिथिला दर्शन में वैज्ञानिक योगेन्द्र पाठक 'वियोगी ' क लगातार लेखन मैथिलीमें सीरियस साइंटिफिक लेखनक एकटा उदाहरण प्रस्तुत कयलनि अछि. ई एकटा नीक प्लेटफार्म थिक.किन्तु, नीक लेखन कें खराब मुद्रण बेकार क सकैये से नहिं बिसरबाक थिक. तथापि, उत्तर वैज्ञानिक लेखनक पुस्तकाकार कृति 'विज्ञानक बतकही' दू भागक कतेक प्रति बिकयलनि आ कएक टा लाइब्रेरी एकर मांग केलक अछि से अनुसन्धेय थिक.
एखनुक युगमे गाम-घर सं बेसी शहर सब में मैथिली-प्रेमी संस्था सबहक स्थापना भ रहल अछि. ओहि सब ठाम छोट-छोट स्तर पर लेखक-कवि-साहित्यकारसं पाठकक भेंटक कार्यक्रमक आयोजन हो. एहि कार्यक्रम सब में एक वा अधिक साहित्यकार छोट-छोट ग्रुपमें अपन कृति पाठक कें सुनाबथि. एहि सब लोक अपरिचित ग्रन्थ सं परिचित हयत, आ जं पाठक कें नीक लगतैक तं पोथीक बिकयबाक बाट सेहो खुजतैक. पचास-साठिक दशकमें गामे-गाम विद्यापति पर्व समारोहमें गौआं सब के एहिना लेखक कवि सं लगसं सम्बन्ध स्थापित होइत छलैक. आब संचारक साधन आ लोकक क्रय शक्ति दुनू बढ़ल अछि.अस्तु ' लेखक सं भेंट' वा 'एकल-पाठ' स्कोप देहातमें टोलआ गामक स्तरपर बेसिए छैक.
प्रकाशन में एखनहु विधाक विविधताक अभाव अछि. जं पछिला दस वर्षमें प्रकाशित मैथिली पोथी सब कें देखी तं प्रायः कथा- कविताक संख्या सब सं बेसी हयत. उपन्यास थोड़ अछि. यात्रा वृतांत, जीवनी,समसामयिक सामाजिक-राजनैतिक, अर्थनीति आ इतिहास, वैज्ञानिक आ घरेलू चिकित्साक, पाक-कला आ बागबानी, घर-अंगना सजयाबाक, सौन्दर्य- आ श्रृगार (self-grooming), कैरियर गाइडेंसक किताब मैथिली प्रायः आंगुर पर गनि सकैत छी. पी.एचडी क थीसिस वा गम्भीर साहित्यिक समालोचना आम रूचि विषय नहीं थिक. तें स्वान्तः सुखाय वा शास्त्रक समृद्धिले जं एहन ग्रन्थ सब छपैत अछि तं गुणात्मकता आ उपादेयताकें दृष्टिमें रखैत एहि पोथी सब कें चाहे विद्वान लोकनि किनताह वा कालेज विश्वविद्यालयक लाइब्रेरी. सर्वविदित अछि, कालेज आ यूनिवर्सिटीक बजटक सबसं पैघ हिस्सा स्थापनाक (establishment) मद में खर्च होइछ. रिसर्च आ लाइब्रेरी प्राथमिकताक सूचीमें कतय अछि से शिक्षाविद लोकनि स्वयं कहताह.नारि रुचिक लेखनक मैथिलीमें अभाव सेहो पोथिक बिक्रीमें बाधक अछि. जुनि बिसरी समाजमें नारिक संख्या पुरुषसं थोड़ नहिं. जं कथा-कविताकें छोड़ि दी घर अंगनामें उपयोग आ परिवार समाजक हेतु दू टा पोथी 'मिथिलाक विधि व्यवहार ( श्रीमती मोहिनी झा ) आ मिथिलाक विध-बाध गीत नाद ( श्रीमती भारती झा ) क मांग तं छैके. अनुमान अछि एहि प्रकारक आनो पोथी अवश्य बिकाइत हयत.
हँ, पढ़बाक रुचिक अभाव पहिनहु छलैये. शिक्षितवर्गमें पान-सुपारी पोथीसं बेसी लोकप्रिय अछि ! तें, जतय प्रत्येक स्कूल-कालेज-रेलवे स्टेशन, बस-स्टैंड लग चाह-पानक दोकान भेटबे करत, ओतय किताबक दोकान अभावृत्तिए भेटत. Multi-media आ मोबाइल फ़ोनक प्रभाव सेहो भेलैये. यद्यपि मोबाइल फ़ोनसं लिखब आ सुनायब सुलभ भ गेलैये.
पोस्ट ऑफिस-सन संस्थाक निधन पत्र-पत्रिकाक वितरणमें बड़का बाधाक बनि गेले. आब गाम घरमें रजिस्ट्री सं पोथी-पत्रिका नहिं पहुंचि पबैत छैक. अन्यथा, मिथिला दर्शन-सं बीस टाकाक पोथी डाकसं उजान, अवाम आ कोइलख किएक नहिं पहुँचत से सोचबाक थिक.
पोथीक दाम कें सेहो कतेक गोटे बिक्रीमें बाधक बूझैत छथि. मुदा सोचू जहिया एक कप चाह चारि आनामें भेटैत छलैक, हिन्द-पाकेट बुक केर उपन्यासक दाम 1 टाका होइक. आइ चाह दस टाका सं कम नहिं, तखन 200 टाकाक किताब कोन महग भेलैक. ताहू में मैथिली वा हिंदी में कोनो लेखक लेखन-प्रकाशनक आयसं गुजर करताह से ने पहिने सम्भव छलैक आ ने आइ सम्भव छैक. तखन प्रकाशनक आ मुफ्त वितरण में जतबा मूल्य लगतैक ताहि हिसाबें जं पोथीक मूल्य होइक तं से अनुचित नहिं. किन्तु, दाम छपलासं दाम ऊपर होइत छैक से तं सोचबे व्यर्थ थिक. मोन रखबाक थिक, जहिया किताब बेसी बिकेतैक तं छपाईक खर्च आ मूल्य स्वतः कम भ जेतैक. एखन तं अधिकतर लेखक प्रकाशनक भार स्वयं बहन करैत छथि. अन्त में एकटा गप्प आओर. नीक लेखन आ त्रुटिविहीन प्रकाशन केर पाठकक अपेक्षा अनुचित नहिं. बंगौर-सन लेखन आ भोजन में आंकड़ -पाथर-सन अशुद्धि कोनो पाठक कें विमुख क सकैत अछि. हाल में एकटा एहन स्थूलकाय उपन्यास, आ एकटा एहन पुरस्कृत 'कथा-संग्रह' हमरा हाथमें आयल जाहिसँ मनोरंजन तं छोडू, ओकरा पढ़ब धरि असम्भव भ गेल. एहन प्रकाशन, जाहिसं ने लेखकक प्रतिष्ठा बढ़तनि, ने पाठकक मनोरंजन हेतैक से लोक किएक किनत ! पुरस्कार भेटलनि, लेखक टाका आ तगमा लेथु, घर जाथु .
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