Saturday, November 20, 2021

दो-अनियाँ होटल

 

 दो-अनियाँ होटल

दरभंगा का हॉस्पिटल रोड १९६२ की लड़ाई के वक्त जैसा था, लगभग आज भी वैसा ही है. या यूं कहिए, आज उससे भी बदतर है : अस्पताल के सरकारी मकानों की गिरती दीवारें और कचरे का ढेर. सड़क के बीचो-बीच का मलबे कहीं-कहीं पर के  ढेर पर घास उग आयी है, और मलबे का ढेर खेतो के बीच मेड़ जैसा लगता है. सुना है, यहाँ स्मार्ट सिटी का काम चल रहा है ! पर, शहर जब भी स्मार्ट बने, फिलहाल स्मार्ट लोग शहर के बाहर अपने-अपने महल बना रहे हैं.

हाँ, तो १९६२ और आज ? अब फर्क इतना ही हुआ है कि हॉस्पिटल रोड की फूस की झोपड़ियाँ गायब हैं. और उसमें चलती ‘दो-अनियाँ’ होटल (जिसे बासु ‘दु-अनियाँ’ होटल कहता था) अब मुझे ढूँढना पड़ेगा. लेकिन आज यहाँ के सरकारी अस्पताल की खस्ता हालत से  लगता है, कि ‘ बासु के ‘दो-अनियाँ’ होटल का आधुनिक एडिशन  आज भी यहाँ चलता ही होंगा. क्योंकि, सुना है, अब इस सरकारी अस्पताल में मवेशी और कुत्ते-बिल्ली के अलावे अब केवल वही लोग आते हैं जिन्हें जाने के लिए कोई और अस्पताल नहीं है, खाने के लिए सस्ता होटल नहीं है ! सुनते हैं, हाल फिलहाल में एक महामारी के गरज से यहाँ के अस्पताल के दो बड़े ओहदेदारों को सरकार ने रातों-रात बर्खाश्त कर दिया था. पर, वह खबर पुआल की आग की तरह जली, और बुझ गयी. अस्पताल जैसा था, वैसा है. किसी का मजाल है, इसे सुधार दे !

हाँ, तो, हम बासु की “दो-अनियाँ’ होटल की बात कर रहे थे. जब बात कर ही रहे थे, तो, बताते चलें कि यह होटल उस सड़क पर था जो मेडिकल कालेज के सामने की सड़क के सामानांतर, बच्चा वार्ड से शुरू होकर आंनद रेस्ट हाउस के गेट के सामने से गुजरती थी. इंट के खरंजे से बने इस सड़क के दोनों ओर पतली नाली बहती थी, जिसमे सुअर निःसंकोच विचरते थे. उन दिनों इस सड़क के उत्तर कुछ जर्जर मकान थे. उन में  ‘जिसकी लाठी, उसकी भैंस’ नियम के मुताबिक़ अस्पताल के कुछ सरकारी मुलाजिम दिन काटते थे. एक-आधा बेहतर खंडहर में कुछ डाक्टर भी रह लेते थे. छौ-सात सौ रुपये माहवारी तनख्वाह पर कोई, आखिर, मकान भाड़े पर कितना खर्च कर सकता है ! इसलिए जो डाक्टर एनाटोमी, फिजियोलॉजी पढ़ाते थे और किल्लत में परिवार चलाते थे, आंनद रेस्ट हाउस के गेट के सामने के मकानों में डेरा डाले हुए थे. पर बासु का अपना घर था ! भगवान जाने कैसे, पर मेडिकल कालेज के इलाके में कुछ लोगों की जमीन की निजी प्लाटें भी थी. राजा की दी हुई ज़मीन, लूट सके सो लूट ! इसी में से एक खुशनसीब बाबू श्यामा प्रसाद सिन्हा थे. श्यामाबाबू किसी ज़माने में मेडिकल कालेज के दफ्तर में बड़ा बाबू थे. सुनते हैं, उन दिनों यहाँ उनकी तूती बोलती थी. उन दिनों लोग कहते थे, श्यामा बाबू के डर से यहाँ ‘खढ़’, यानी घास, जलता था ! यानी चलते हुए, उनके पैरों के नीचे की घास भी जलने लगती थी. उनका इतना रौब था. तो, शायद उसी जमाने में उन्होंने एक बड़ा सा प्लाट अपने नाम करबाया होगा. चाहर दिवारी से घिरे उस प्लाट में उनका अच्छा खासा मकान था. आगे बड़ा सा मैदान. मैदान की दाहिनी तरफ, एक-एक कमरे के दो डेरे थे, जो किराए पर लगते थे. किराए के इसी डेरे के बगल श्यामा बाबू ने बासु को थोड़ी ज़मीन दे रखी थी. उसी ज़मीन में बासु ने अपनी झोपड़ी, और जलावन की लकड़ीकी  दूकान, बना रखी थी. बासु का परिवार और ‘बुढ़िया’ के नाम से ख्यात बासु की बिधवा बहन, इसी झोपड़ी में रहते थे, और यहीं चलता था, बासु का ‘दो-अनियाँ’ होटल.

उस जमाने में जब पाँच पैसे में एक समोसा मिलता था,  दो आने में आम लोगों के लिए सत्तू का नाश्ता तो हो ही सकता था. पर यहाँ तो दो आने में सब कुछ मिलता था. फिर भी, बासु  ‘दो-अनियाँ’ होटल के खाने को दिन काटनेवाला खाना मानने को तैयार नहीं था. इसलिए, रोगियों के इलाज के गरज से आये लोग बासु के होटल की शरण लेते थे. कमर के नीचे फटी-पुरानी धोती, कंधे पर एक गमछा. सर्दी हुई तो सूती तौनी आ नंगा पैर. ऐसे लोगों के लिए बासु का ‘दु-अनियाँ’ बहुत बड़ा आसरा था.

होटल के खाने के अलावे, बासु दही भी बेचता था. लोग जब उससे उसकी दूकान के दही के बारे में पूछते थे, तो बासु का जवाब नपा तुला होता था: ‘खाऊ ने. हमर दही खायम त कलेजा एक बित्ता बढ़ जैत.’  और लोग उसकी कद-काठी देखकर सच में उसका विश्वास कर लेते थे.

गेहूँआ रंग. छोड़ा कद, गठीला शरीर. उसकी छाती चौड़ी थी. नंगे बदन काम करनेवाले बासु के सीने और पेट की मांस-पेशियाँ ऐसे पुष्ट थे कि शरीर-रचना  पढ़नेवाले मेडिकल छात्र किताब में लिखे एक-एक पेशी की संरचना सतह पर देख लेते. बासु का एक बेटा, और दो बेटियाँ थी. बेटियाँ बड़ी थी. ब्याही गयी और अपने घर गयी. बच गया बेटा, जीबछ. सुनते हैं, जीबछ के पैदाइश के पहले दो बहनों के पैदा होने के कारण बासु की माँ ने बहू को बासु की दूसरी शादी की धमकी दे डाली थी. बेचारी बासु की बीबी के लिए ब्राह्मणों से पूजा-पाठ करबाना तो मुमकिन नहीं था. सो, गाँव की औरतों ने बासु की औरत से कहा, ‘जीबछ में नहा आ, कारो. जीबछ किसी को निराश नहीं करती !’ और बासु का बेटा- जिबछा- कमला की छाड़न, जीबछ धार की कृपा थी.

मन्नत मांगी सन्तान, ख़ास कर बेटे, बिगड़े ही होते हैं. सो जिबछा बिगाड़ा बेटा था. अब उसकी कुछ बातें भी सुन ही लीजिये. पर पहले होटल की बातें हो जाएँ.

रोगियों की इलाज से परेशान जो लोग शाम को हॉस्पिटल रोड पर इर्द-गिर्द चक्कर काटते थे, उन पर कई प्रकार के लोग, खाने पर मक्खी की तरह मड़राते थे: डाक्टर के दलाल, रेस्ट हाउस के दलाल, होटल के दलाल, दवाई दुकानों के दलाल. जैसे काशी-बनारस के बारे में कहते हैं, ‘ रांड, सांढ़, सीढ़ी, सन्यासी, चारों से बचे तो तो सेवो काशी’. वही बात, अस्पताल रोड का था. ‘आपको दलालों से बचना होगा’, ऐसा कह कर कई  शातिर दलाल आपका गिरह काट सकते हैं. पर, आपको मालूम भी नहीं होगा. बासु भी इसी तालाब की एक छोटी मछली था. इसलिए,जब बासु की झोपड़ी के सामने की सड़क की दूसरी ओर अस्पताल के बाबुओं की रिहाइश में शाम को उनकी चौकड़ी जमती थी, तो उनकी गप-शप में बासु भी जुड़ जाता था. किसी नए मुल्ले को देखकर बातें कुछ इस तरह शुरू होती थी : अच्छा बासु क्या रेट है, खाने का ?

‘बस, दू आना, बाबू !’

‘दो आने ? बस ?’

‘हाँ, बाबू !’ बासु सीना चौड़ी कर कहता.

‘बड़ी अच्छी बात है. भाई साहब अभी पूछ रहे थे’, सामने खड़े आदमी को दिखा कर एक कहता.

‘आइए न.’ बासु मुर्गे को पोल्हाता. मुर्गा, माने ग्राहक, जिसे यहाँ बारी-बारी से सभी हलाल करेंगे ! कोई आज, कोई कल और कोई परसों, जब तक उसकी टेंट में पैसे हैं. आज बासु की बारी है.

‘खाने में क्या सब मिलाता है ?’

‘सब कुछ.’ बासु दाहिने हाथ की तरहत्थी को ऊपर तैरा कर कहता.

‘सब कुछ, साहू जी ?’ सामने खड़े ग्राहक आश्चर्य से पूछते.

‘हाँ. भात-रोटी, दाल, तरकारी, और दही. बाबू,खाऊ ने. हमर दही खायम त’ कलेजा एक बित्ता बढ़ जैत.’ बासु थोड़ा  रुक कर बोलता, ‘लियअ ने. इहे त’ चौका है. हंडा-पतीला-करछुल-ढकना. हंसुआ- सिलबट्टा-लोढ़ी. लोटा त’ लयने हेबै ने ?’ और बासु जिबछा को आवाज लगाता: ‘जीबछ महासेठ, जीबछ महासेठ !!’ कोई आवाज नहीं. बासु दुहराता, ‘बौआ, बौआ !!’ फिर भी  कोई आवाज नहीं. बासु अब गुस्से से पागल होनेवाला है पर सब्र का बाँध अभी टूटा नहीं है, अभी उसे और ग्राहक चाहिए. तब तक पास बैठे ग्राहक से कहता, ‘ अच्छा, इहे त’ है, लछमी साहू के दोकान. चामल-दाल-नमक तेल ल; आउ. आलू आ लकड़ी त’ हमरे स’ मोल ले लेब.’ और फिर चिल्लाता, ‘ रे जिबछा !’ दुकान के पिछवाड़े में ताश में मस्त जिबछा तक शायद अभी बासु की आवाज पहुँची नहीं होती. पर बासु अब और इंतज़ार नहीं करेगा. वह, चिल्लाता है: ‘रे हरामी, सूअर का बच्चा !’  और जिबछा फ़ौरन दौड़ता हुआ आता है, ‘ की कहै छ’ हौ ?’

बासु, अपने को जब्द करता और ग्राहक को बोलता, ‘ जाऊ बाबू, जिबछा लकड़ी तौल देत !’ हॉस्पिटल रोड में बाप के साथ रहता जिबछा ने , पढ़ने के लिए आठ किलोमीटर  दूर मुकुन्दी चौधरी स्कूल को चुना है. स्कूल दूर है, इसलिए माँ से बस के नाम पर अक्सर दो चार आने ऐंठ ही लेता है. पर पढ़ाई ? अरे ! महाराज, अभी छोड़िये उसे !

ग्राहक बरतन-बासन उठाता. तब तक बासु की बहन बुढ़िया आती. ‘जाऊ ने पानी त’ ल’ आउ. अदहन चढ़ा ने लू. जामे चामल-दाल-नीमक-हरदी ले के आयम, अदहन भ’ जायत. मशाला शिलबट्टा पर पीस लू. कहम त’ बलू हमही रगड़ देब.’ और ग्राहक नलके के पास जा कर पानी ले आता.

तब तक बासु लौट कर ग्राहक के पास आता, ‘लाउ त बाबू ढौआ. तनी मटिया तेल लेले अबै छी. अहूँ के त’ चूल्हा जलाबे ले काम होत. ले आयम, अहूँ ले ?’

हम लोग आधी शताब्दी के बाद यहाँ दरभंगा आये हैं. मैं बासु की याद करता हूँ, और यहाँ उसकी ‘दू-अनियाँ होटल’ ढूँढता हूँ. यहाँ बासु का ‘दो-अनियाँ’ होटल नदारद है. पर बांकी सब कुछ तो वैसा ही है. या कहिए उससे भी बदतर है ! पर, दरभंगा छोड़ते-छोड़ते कादिराबाद टैक्सी-स्टैंड पर अचानक बौआ,जीवछ महासेठ,जिबछा, मिल गया. उसने दूर से लम्बा प्रणाम किया. जीबछ ने कहा अब यहाँ उसका टैक्सी का दलाली है. हमने पूछा, और ‘दू अनिया होटल’, जीबछ ?

जीबछ शिर हिलाते हुए बोला, ना ! अब होटल कहाँ बरक्कत है, भाई जी !

तब तक मेरी टैक्सी पटना के लिए चल पड़ी.

              

   

 

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अहाँक सम्मति चाही.Your valuable comments are welcome.

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