इस सूरज से अपनी यारी है
सूरत इसकी जानी पहचानी है
सुबह-सुबह जब ऊपर आता है
खेतों के उपर जब शाम को इठलाता है,
लगता है,
इस सूरज से अपनी यारी है
सूरत इसकी जानी पहचानी है .
उछलती मछलियाँ पोखर में दिख जाती हैं
लडकियाँ अब यहाँ इस में कहाँ नहातीं
हैं
पानी पीने कोई बैल नहीं अब आता है
पोखर अपने भाग्य पर झुंझलाता है !
फिर भी,
इस वन-प्रांतर से अपनी यारी है
सूरत इसकी जानी पहचानी है .
घर-घर में होती थी खूब लड़ाई
पर सब करते थे कुनबे की खूब बड़ाई
अब बंद पड़े दरवाजे, सूरत है बेजान
सारा गाँव ही है सुनसान !
फिर भी,
यहाँ के दरवाजों से अपनी यारी है
सूरत इसकी जानी पहचानी है .
हर बरस लौट कर आता हूँ
बरहम बाबा से बतियाता हूँ,
लगता है
बूढ़े बरगद, पीपल में अभी बहुत है जान
होंगे यहीं कहीं भगवान !
क्योंकि,
इस के खेतों से इनकी यारी है
सूरत इसकी जानी पहचानी है.
बिसरे गीतों को दुहराता हूँ
अपने अंतर को सहलाता हूँ
थोड़ी खुशबू
थोड़ी हवा यहाँ की सीने में भर ले जाता
हूँ
क्योंकि
खुशबू अपनी पहचानी है
इस पानी से अपनी यारी है
ग्रामीण जीवन के वर्तमान स्वरुप को शब्दों में अक्षरशःउकेरती हुई एक जीवंत एवम् मार्मिक कविता !
ReplyDeleteअनेक धन्यवाद।
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