Tuesday, December 26, 2017

स्मार्ट फ़ोन, फेसबुक आ साहित्य

इन्टरनेट,स्मार्ट फ़ोन, फेसबुक, आ साहित्य
इन्टरनेटक उपयोग सबसँ पहिने उन्नत देश सबहक सेना अपन आतंरिक संचार ले केलक. 1990क दशक में क्रमशः इन्टरनेट जनसामान्यक जीवनमें आबि गेल . पछिला पन्द्रह वर्षमें इन्टरनेट पढ़ल-लिखल शहरीक  जीवनक हिस्सा बनि गेल. तथापि कम्प्यूटरसं अभिज्ञक हेतु इन्टरनेट पहुँचकेर बाहर छल. तें, पुरान पीढ़ीक साहित्यकार लोकनि  कम्प्यूटर आ इन्टरनेट कें दूरेसं देखैत रहलाह. स्मार्टफ़ोन जहियासं सार्वजनिक भेल, स्थिति एकदम बदलि गेल.  कवि- कथाकार लोकनि जखन स्मार्टफ़ोनक प्रतापें फेसबुकसं परिचित भेलाह तं  बहुतो गोटे  एक दोसरा सं जुड़लाह, जे पहिने असम्भव छल. तथापि, आरम्भमें  ई  सम्पर्क  नमस्कार-प्रणाममें आ like ( नीक लागल ) धरि सीमित छल. किन्तु, पछिला किछु दिन में  स्मार्टफोनक उपयोगक नव- नव  आयामक उदय होमय लागल-ए . सद्यः रचल कविता  कविगोष्ठी आ सम्मलेनसं पहिनहिं आकाशवाणी जकां साइबर स्पेसमें गुंजय लागल अछि.   क्रमशः फेसबुक पर कविता आ टीका-टिपण्णीक आदान-प्रदान होमय लागल अछि . ई एकटा स्वागतयोग्य परिवर्तन थिक. कवि-कथाकार उदय चन्द्र झा 'विनोद' तं  एकरा स्वीकार केलनि, आ स्मार्टफ़ोनसं कविता लिखब आ आदान-प्रदान सुलभ भ जेबाक गप्पकें अपन फेसबुक पोस्टपर लिखबो केलनि. फलतः, हमरो लोकनि भोर होइते, घरे बैसल नव-पुरान कवि लोकनिक, चूल्हिपर चढ़ले काव्यक रिन्हका चिखैत छी. 
किन्तु, अनेको नव अविष्कार भले अनूप हो, उपयोगक दोषसं वा अविष्कारमें सन्निहित दोषसं पछाति  प्रत्येक विधाकेर किछु अप्रत्याशित असरि समय-समय पर देखबामें आयब असम्भव नहिं . इन्टरनेट आ स्मार्ट फ़ोन सेहो एहिसं अछूत नहिं. नीचा देल किछु उदहारण हमर वक्तव्यकें स्पष्ट करत.
हालमें एकटा सम्पादक मैथिलीक 'कोनो' प्रोफेसरके भुसकौल कहि देलखिन. बड बेस. टटका-टटकी किछुए दिन पहिने, केओ एक गोटे बड परिश्रमसं प्रोफेसर भेल छलाह . हुनका लागि गेलनि . ओ बमकि उठलाह. पक्ष आ विपक्ष दुनू में तर्क-वितर्क शुरू भेल . किन्तु. फेसबुकक अपन सीमा छैक. अस्तु, ने  केओ पूर्णतासं अपन पक्ष रखैछ, आ ने से सम्भव छैक. तखन वाद-विवादक  जे नियति हेबाक छलैक, से भेलैक. किन्तु, एखनुक युगमें  नीक जकां तर्कसंगत पक्ष रखबाक  समय  सबकें नहिं छैक; अवगतिक गप्प सं हम परिचित नहिं. तें,ओकर गप्प तं छोडू. किन्तु, हमरा जं पूछी, तं, जे मुद्दा  एहि विवादक  कारण छल, ताहिपर तर्कसंगत आलेखसं विद्वान लोकनि अपन पक्ष रखितथि, जाहि सं पाठक लोकनि अपन निष्कर्ष  स्वयं निकालितथि, से नहिं भेल.  एहिले पक्ष रखबाक आग्रह आ प्रतिबद्धता दुनू चाही. चूंकि, तर्कमें सीताक भाषाक स्थान पर, विवादक मुद्दा प्रोफेसर जातिक दक्षता भ गेल, तें, विवाद शाश्त्रीय नहिं भ' कय व्यक्तिगत भ' गेल. ओना, हनुमानक संग सीताक संवादक भाषा  मैथिली छलनि वा नहिं, तकर संधान तं समाप्त भ' गेल, से  लगइये !
स्मार्टफोन पर लिखल साहित्यक दोसरो  बाध्यता छैक. ई बाध्यता थिक, तुरत लीखि, लिखबो सं पहिने (!) छापि देबाक आग्रह. ताहिसं लेखतं छपि जाइछ, किन्तु, लेख केर पहिले ड्राफ्ट फाइनल  भ जाइछ. अस्तु, कतेक बेर बिनु धोअल-बिछल  चाउरसं आंकड़-पाथर-पिलुआक संग जेहन पुलाव बनतैक , से बनि गेल आ परसल भ गेल. एहिसं लेखककेर तुरत शेयर करबाक आग्रह तं पूर्ण भ गेलनि, किन्तु, जे प्रतिष्ठा स्वादिष्ट भोजन रन्हनिहार भनसियाक बनाओल भोजन कें भेटैत छैक ताहि सं साहित्यकार, आ विचारक, वंचित भ जाइत छथि. किन्तु, एहि टावर ऑफ़ बाबेल (Tower of  Babel ) में ककरा के सुनैत अछि ? आ पढ़ल-सुनलकें के कतेक दिन मोन राखत, से के कहत !
इन्टरनेट आ स्मार्ट फ़ोनपर लिखबाक विधाकें एकटा आओर पक्ष छैक: अप्रत्याशित मांग. हाल में एकटा प्रॉक्सी फेसबुक  पोस्ट देखल.  एहि पोस्टमें वयोवृद्ध आ समादृत  साहित्यकार गोविन्द झासं एकटा आग्रह कयल गेल छनि : ' गोविन्द बाबू अमुक पत्रिका में छपल  'किरणजी'अमुक इंटरव्यूकें पढ़थि, आ तन्त्रनाथ झाक सम्बन्धमें किरण जीक विचारक सम्बन्धमें अपन ( गोविन्द झा केर ) उक्तिक परिमार्जन करथि' ! भेलैक ने अतत्तः !                               
स्मार्टफ़ोन पर लेखसबमें  अभिव्यक्तिक स्वतंत्रताक अति - गारि-गरौअलिक- एकटा तेसर समस्या थिक. पत्र-पत्रिकाक    संपादक तं अपन पत्रिका में छपल सामग्रीले किछु हद धरि दायित्व लैत छथि. इन्टरनेट आ फेसबुक पोस्टले दायित्व के लेत !
ततबे नहिं, एखनुक लेख सब में परिचित विद्वान, बुद्ध-चाणक्य आ नेहरू- गाँधीक एहन उद्धरणसब देखबैक जकर कोनो आधार नहिं छैक. किन्तु, ई सब शुद्ध- अशुद्ध आ जानल-बूझल उपद्रव हजारों बेर बिनु पढ़ने 'लाइक' आ फॉरवर्ड (पुनः प्रेषित ) भ जाइछ . अर्थात्, असत्य,अशुद्ध आ अनर्गलो  भोपाल आ चर्नोविलक विषाक्त गैस जकां क्षण भरिमें देश आ महादेशक सीमाकें नांघि जाइछ . सुधी समाज आ साहित्यकारकें  ई मोन राखब उचित.

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